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तृतीया तु मिथोऽबाधा शशिनोः प्रति मण्डलम् । तत्रोघतोऽर्कवत् मेरोः मण्डल क्षेत्रमीरितम् ॥३३०॥ अब चन्द्र के मंडलों का अबाधा विषय कहते हैं - (२)
सूर्य के समान चन्द्र के सम्बन्ध में भी अबाधा तीन प्रकार से है । १- ओघ से मेरू पर्वत की अपेक्षा से अबाधा, २- प्रत्येक मंडल में मंडल क्षेत्र की अबाधा, और ३- प्रत्येक मंडल में दोनों चन्द्रमाओं की परस्पर अबाधा । (३२६-३३०)
चतुश्चत्वारिंय तैव सहस्ररष्टभिः शतैः । विशतयाढयैः योजनानाम् इयतैवाद्यमण्डलम् ॥३३१॥
ओघ से मेरू पर्वत की अपेक्षा से सूर्य के समानं चन्द्रमा का मंडल क्षेत्र कहा है। उसका पहला मण्डल चवालीस हजार आठ सौ बीस (४४८२०) योजन मेरू पर्वत से दूर रहा है । (३३१) . .
षटत्रिंशद्योजनान्येकषष्टयंशाः पंच विंशतिः । एकस्यैकषष्टिजस्य चत्वारः सप्तजाः लवाः ॥३३२॥ वर्धतेऽन्तरमेतावत् प्रतिमण्डलमादिमात् । सर्वान्त्यमण्डलं यावत् ततो द्वितीयमण्डलम् ॥३३३॥ सत्सहस्रश्वतुश्चत्वारिंशता चाष्टभिः शतैः । षट्पंचासैरेक षष्टि भागैस्तत्वमि तैस्तथा ॥३३४॥ एकस्यैकषष्टिजस्य चतुर्भिः सप्तजैः लवैः ।
स्यात् मन्दरात् अन्तरितमेकतोऽपरतोऽपि च ॥३३५॥ कलापकं ॥
प्रथम मंडल से लेकर अन्तिम मंडल तक प्रत्येक मंडल में छत्तीस पूर्ण योजन और (२५/६१) ४/७ योजन जितना अंतर बढ़ता जाता है, इससे दूसरे मंडल में चवालीस हजार आठ सौ छप्पन सम्पूर्ण योजन और (२५/६१) ४/७ योजन जितना मेरू पर्वत से दोनों तरफ दूर अन्तर रहता है । (३३२-३३५)
सर्वबाह्यमण्डलं तु स्थितं दूरे सुमेरूतः । सहस्त्रैः पंचचत्वारिंशशता त्रिशैस्त्रिभिः शतैः ॥३३६॥ योजनानां योजनैक षष्टिभागाष्टकोज्झितैः । अथो मिथोऽन्तरं वक्ष्ये राशिनोः प्रतिमण्डलम् ॥३३७॥ युग्मं ॥