________________
(४४०) यद्वा प्रति परिक्षेपं योक्ताष्टादश योजनी । वृद्धि षष्टया विभक्तुं तामूर्ध्वाधस्तद्वयं न्यसेत् ॥२१६॥ राशिःषष्टेर्न दत्तेऽशं तत्राष्टा दश लक्षणः । ततोऽष्टादश षष्टिघाः स्युः सहस्रमशीतियुक् ॥२१७॥ तेषां षष्टया हृते भागे लब्धा अष्टादश स्फुटम् । एतावन्तः षष्टिभागाः किंचिदूनास्तु निश्चयात् ॥२१८॥ प्राच्य मण्डल मुहूर्तगतौ क्षिप्यन्त इत्यतः । यथोक्तं तत्परिमाणं भवेदेवं यथोत्तरम् ॥२१६॥ युग्मं ॥
अथवा प्रत्येक मण्डल में जो अठारह योजन की वृद्धि कही है, उसे साठ से भाग देना परन्तु ६० से भाग नहींदिया जाता इसलिए १८ को ६० से गुणा करना अतः १०८० अंश आता है उसे ६० द्वारा भाग देते साठांश आता है इस रकम को पूर्व के मंडल की मुहूर्त गति में मिलना । इस तरह करने से इसका यथोक्त परिणाम आता है । उत्तरोत्तर भी इसी ही तरह कहना.। (२१६ से २१६)
एतद्याम्यायने सौम्यायने तु प्रतिमण्डलम् । अष्टादशांशाः क्षीयन्ते महत्तीर्य गतौ रवेः ॥ एव च - सर्व बाह्ये योजनानां पचोत्तरं शतत्रयम् ।
सहस्राणि पंच पंचदशभागाश्च षष्टिजाः ॥२२१॥ सर्वान्तिमार्वाचीने तु त्रिशती चतुरूत्तरा ।
सहस्राणि पंच सप्तपंचाशत् षष्टिजाः लवाः ॥२२२॥
इसी तरह दक्षिणायन में समझना । उत्तरायण में तो प्रत्येक मंडल में सूर्य की मुहूर्त गति में अठारह अंश घटते जाता है और इसी तरह सर्व से बाहर के मंडल में पांच हजार तीन सौ पांच पूर्णांक पंद्रह साठांश (५३०५ १५/६०) योजन सूर्य की मुहूर्त गति आती है । और सर्व से बाहर के बाहर मंडल के आगे के मंडल में इसकी मुहूर्त गति अठारह साठांश कम आती है । अर्थात् पांच हजार तीन सौ चार पूर्णांक सत्तावन साठांश (५३०४ ५७/६०) योजन का आता है । (२२०-२२२)
मुहूर्तगतिरित्येवं विवस्वतोः निरूपिता ।
अथ प्रपंच्यते दृष्टि पथ प्राप्ति प्ररूपणा ॥२२३॥
इसी तरह दोनों सूर्य की मुहूर्त गति में जानकारी दी है, अब उनकी दृष्टि पथ प्राप्ति के विषय में कहते है । (२२३)