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इस विषय में इस प्रकार की वृद्ध संप्रदाय है - भद्र शाल वन में मेरू पर्वत की चारो दिशाओं में नदियों के प्रवाह से घिरा हुआ है, इसलिए उसी दिशा में जिन मंदिर नहीं है । (१०१)
किन्तु नद्यन्तिकस्थानि भवनानि किलार्हताम् । गजदन्तसमीपस्थाः प्रासादश्च बिडौजसाम् ॥१०२॥
परन्तु नदी के पास में अरिहंत भगवंत का मंदिर है, और गजदंत पर्वतों के पास में इन्द्रों का प्रासाद है । (१०२)
तदन्तरालेष्वष्टासु करिकूटा यथोदिताः । ... दर्शितः स्थान नियमस्तत्राप्येष विशेषतः ॥१०३॥.....
और उनके बीच में रहे आठ के पूर्व कहे अनुसार गज कूट पर्वत है । इस सम्बन्ध में विशेष रूप स्थान नियम इस प्रकार है.- (१०३)
बहिरूत्तर कुरुभ्यो मेरोरूत्तर पूर्वतः । . शीताया उत्तरदिशि प्रासादः परिकीर्तितः ॥१०॥
उत्तर कुरु से बाहर, मेरु पर्वत से उत्तर पूर्व में, तथा शीता नदी से उत्तर में, प्रासाद कहा है । (१०४) .
मेरोः प्राच्या दक्षिणत: शीतायाः सिद्धमन्दिरम् । एतस्योभयतः कूटौ द्वौ प्रज्ञप्तौ जिनेश्वरैः ॥१०॥
मेरु पर्वत के पूर्व दिशा में और शीता नदी के दक्षिण में सिद्ध मन्दिर है, इसके दोनों तरफ में दो गजकूट है, ऐसा जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है । (१०५)
बहिर्देवकुरुणा च मेरोदक्षिणपूर्वतः । शीताया दक्षिणदिशि प्रासादः कीर्तितो जिनैः ॥१०६॥
देव कुरु के बाहर मेरू पर्वत के दक्षिण पूर्व में, तथा शीता नदी की दक्षिण दिशा में, प्रासाद आया है । ऐसा जिनेश्वर देव ने कहा है । (१०६)
मध्ये देवकुरूणां वै शीतोदायाश्च पूर्वतः । मेरोदक्षिणत सिद्धायतनं स्मृतमागमे ॥१०७॥
देव कुरु के मध्य विभाग में शीतोदा नदी के पूर्व में, और मेरु पर्वत की दक्षिण में, सिद्ध मन्दिर आया है । ऐसा आगम में कहा है । (१०७)