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(११४) त्रयोदशभिरित्येवं तृतीय भागवर्जितैः ।
आलोकः शर्करापृथ्वी पर्यन्तात् किल योजने ॥१२६॥ .
वह फर्क इस प्रकार है - वंशा के पहले वलय का विष्कंभ छः पूर्णांक एक तृतीयांश योजन है, दूसरे वलय का पौने पांच योजन है जबकि अन्तिम तीसरे वलय का एक पूर्णांक सातवां अंश योजन है । इस तरह गणित करने पर यह शर्करा प्रभावंशा के अन्तिम से बारहवें पूर्णांक दो तृतीयांश योजन का आखरी अलोक है । (१२४-१२६)
एकं लक्षं योजनानां सद्वत्रिंशत् सहस्रकम् ।
अस्या बाहल्यमादिष्टं विशिष्टज्ञानशालिभिः ॥१२७॥
विशिष्ट ज्ञानी पुरुषों ने इस नरकं पृथ्वी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन कही है । (१२७) ..
मुक्त्वैकैकं सहस्रं च प्रास्वदस्यामुपर्यधः ।। एक लक्षे योजनानां संहौस्त्रिंशतान्विते ॥१२८॥ एकादश प्रस्तटाः स्युः तेषां प्रत्येकमन्तरम् । योजनानां सहस्राणि नव सप्त शतानि च ॥१२॥ युग्मं ।
यहां पर भी नीचे, ऊपर हजार, हजार योजन छोड़कर शेष एक लाख तीस हजार योजन में ग्यारह प्रतर आये हैं और इसमें दो-दो प्रतर के बीच का अन्तर है वह नौ हजार सात सौ योजन का होता है । (१२८-१२६)
प्रतिप्रतरमे कै को भवेच्च नरकेन्द्रकः ।।
मध्य भागेऽथ नामानि तेषां ज्ञेयान्यनुक्रमात् ॥१३०॥ . प्रत्येक प्रतर के मध्य में एक नरकेन्द्र होते हैं इनके नीचे अनुसार नाम आदि क्रमशः जानना । (१३०)
वह इस प्रकार :धनिको धनकश्चैव मनको वनकस्तथा । घट्ट संघट्ट जिह्वाख्याः अपजिह्यस्तथापरः ॥१३१॥ लोलश्च लोलावतश्च घनलोलस्तथैव च । प्रतिप्रतरमेभ्योऽष्टावष्टौ स्युर्नरकालयाः ॥१३२॥ १- धनिक, २- धनक, ३- भनक, ४- वनक, ५- घट्ट, ६- संघट्ट,