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समीक्षा - इस कथन की सच्चाई के लिये केवल किम्वदन्ती के अतिरिक्त कोई भी प्रमाण आज पर्यन्त किन्हीं खरतरगच्छीय विद्वानोंने नहीं दिया है। और इस कथन में सर्व प्रथम यह शङ्का पैदा होती हैं कि वे ८४ आचार्य और ८४ गच्छ कौन २ थे ? क्योंकि जैन श्वेताम्बर संघ में जिन ८४ गच्छों का जनप्रवाद चला आता है वे ८४ गच्छ किसी एक आचार्य या एक समय में नहीं बने हैं । पर उन ८४ गच्छों का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक का है । और उन ८४ गच्छों के स्थापक आचार्य भी पृथक् २ तथा ८४ गच्छ निकलने के कारण भी पृथकू २ हैं । इस विषय में तो हम आगे चलकर लिखेंगे, पर पहिले आचार्य उद्योतनसूरि के विषय मे थोड़ासा खुलासा कर लेते है कि आचार्य उद्योतनसूरि कब हुए और वे किस गच्छ या समुदाय के थे ? ।
चन्द्रकुलके स्थापक आचार्य चन्द्रसूरि भगवान् महावीरके १५ वे *पट्टधर थे और चन्द्रसूरिके १६ वें पट्टधर अर्थात्
* तपागच्छ की पट्टावल में चन्द्रसूरि को १५ वाँ पट्टधर लिखा है तब खरतर गच्छ की कइ पट्टावलियों मे चन्द्रसूरि को १८ वें पट्टधर लिखा है । इसका कारण यह है कि खरतर पट्टावलीकार एक तो महावीर को प्रथम पट्टधर गिनते हैं । दूसरा प्राचार्य यशोभद्र के संभूतिविजय और भद्रबाहु दो शिष्य हूए । दोनों को क्रमशः ७-८ वाँ पट्ट गिना है । तीसरा आर्यस्थूलभद्र के महागिरि और सुहस्ती इन दोनों शिष्यों कों भी क्रमशः दो पट्टधर गिन लेने से चन्द्रसूरि १५ वें पट्टधर आते हैं। इसमें कोइ विरोध तो नहीं घाता है । केवल गिनती की संख्या में ही न्यूनाधिकता है ।
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