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जैन इतिहास संग्रह
(भाग १७ वाँ)
[ खरतरों के हवाई किल्लाकी दीवारों ]
ज्ञानसुन्दर www.umaragyanbhandar.com
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प्रकाशक :
श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला मु. फलोधी ( मारवाड)
खास खर-तर गच्छीय हरिसागरजीकी प्रेरणासे ।
मुद्रक : शेठ देवचंद दामजी
भावनगर
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दीवारों
खर-तरों के हवाइ किल्ला
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खरतरों ! तुम मेरे लिये भले बुरे कुच्छ भी कहो, मैं उपेक्षा हो करुंगा । पर पूर्वाचार्यों के लिये तुम लोग, हलके एवं नीच शब्द कहते हो उन को मैं तो क्या पर कोई भी सभ्य मनुष्य सहन नहीं करेंगे जैसे तुम लोगोंने कहा है कि
" तुम्हारा रत्नप्रभसूरि किस गटरमें छीप गया था ? " " रत्नप्रभसूरि हुए ही नहीं हैं xx ओसियों में रत्नप्रभ
सूरिने सवाल बनाये भी नहीं हैं श्रोसवाल तो खरतराचार्योने ही बनाये हैं।" इत्यादि.
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खरतरों के अन्याय के सामने मेने पन्द्रह वर्ष तक धैर्य रक्खा पर आखिर खरतरोंने मेरे धैर्य को
जबरन तोड़ डाला जिसकी यह
" पहली अवाज है"
............................. .. " अरे खरतरों ! रत्नप्रभसूरि मेरानहों पर वे जगत्पूज्य हैं। तुम्हारे जैसी कोई व्यक्ति कह भी दें इससे क्या होने का हैं ?"
मुझे ऐसी किताब लिखने की आवश्यकता नहीं थी पर यह तुम्हारी ही प्रेरणा हैं कि मुझे लाचार होकर ऐसा कार्य में हाथ डालना पड़ा हैं । आचार्य रत्नप्रभसूरिने श्रोसवाल बनाया जिस के लिये तो आज अनेक प्रमाणिक प्रमाण उपलब्ध हैं पर क्या तुम भी तुम्हारे पूर्वजों के लिये एकाध . प्रमाण बतला सकते हो?
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.. -: पत्र की पहुँच :
नागोर में विराजमान प्रिय खरतरगच्छोय महात्मन् !
सादर सेवा में निवेदन है कि आप का भेजा हुआ पत्र मिला है । यद्यपि पत्र गुम नाम को है पर उसके हरफ देखने से व मजमून पढने से यह सिद्ध हुआ हैं कि यह पत्र आप का ही भेजा हुआ है।
पत्र एक आने के लिफाफे में है लाल स्याही से कागद के दोनों ओर लिखा हुआ है । वह पत्र नागोर की पोष्ट से ता. ६-६-३७ को रवाना हुआ है ता. ७-६-३७ को पोपाड़ की पोष्ट से डिलेवरी हुइ हैं ता. ८-६-३७ को मुकाम तीर्थ कापरडा में मुझे मिला है। यह सब हाल लिफाफा पर लगी हुई पोष्ट ऑफिस की छापों से विदित हुआ है।
प्रस्तुत पत्र एक बार नहीं पर तीन बार ध्यानपूर्वक पढ़ लिया है । जिस मजमून को आपने लिखा है उसको पढ़ कर मुझे किसी प्रकार का आश्चर्य नहीं हुआ है क्यों कि यह सब आप लोगों की चिरकालान परम्परा के अनु. सार ही लिखा हुआ है।
पत्र में ११ कामों के अन्त में आपने लिखा है कि " तुम नागोर आओ, तुम्हारा बुाढ़पा यहीं सुधारा जायगा" इत्यादि । पर मेरा बदनसीब हैं कि आप का प्राग्रहपूर्वक आमंत्रण होने पर भी मैं नागोर नहीं पा सका। इस का खास कारण यह था कि आप का पत्र मिलने के पूर्व ही मैंने सोजत श्रीसंघ की अत्याग्रहपूर्वक विनति होने से वहाँ
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चातुर्मास करने की स्वीकृति दे दी थी । अन्यथा मेरा बुढ़ापा सुधारने को अवश्य आप की सेवा में उपस्थित हो जाता ।
मेरा बुढापा सुधारने का शौभाग्य तो शायद आप के नशीब में नहीं लिखा होगा, तथापि आप की इस शुभ भावना के लिये तो मैं आप का महान् उपकार ही समझता हूं ।
खैर ! आप की शुभ भावना यदि किसी का सुधार-कल्याण करने की ही है तो मेरी निस्वत प्राप के पूर्वजों के जन्म कई प्रकार से बिगड़े हुए पुराने पोथों में पडे हैं उन्हें सुधार कर कृतकृत्य बनें । शायद आप की स्मृति में न हो तो उसके लिए यह छोटासा लेख मैं आज आप की सेवा में भेज रहा हूं। यदि आप की दीर्घ भावना इतना सा छोटे लेख से तृप्त न हो तो फिर कभी समय पाकर विस्तृत लेख लिख आप को संतुष्ट कर दूँगा । उम्मेद है कि अभी तो आप इतने से ही संतोष कर लेंगे ।
सोजत सिटी ( मारवाड़ )
आप का कृपाकांक्षी
ता. १-१०-३७
-ज्ञानसुन्दर—
१ नोट - इस पत्र की भाषा इतनी अप्रेल है कि सभ्य मनुष्य लिख तो क्या सके पर पढने में भी घृणा करते करते हैं । पत्र के लिखनेवाला की योग्यता कुलीनता और द्वेषाग्नि का परिचय स्वयं यह पत्र ही करा रहा हैं सिवाय नीच मनुष्य के पूर्वाचार्यों पर मिथ्या कलंक कौन लगा सकता है ? खैर ! मिथ्या आक्षेपों का निवारण मिथ्या आक्षेपों से नहीं पर सत्य से ही हो सकता हैं, जिस का दिग्दर्शन इस किताब में करवाया गया हैं जरा ध्यान लगा कर पढ़े ।
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नेक सलाह.
" क्या मेग यह खयाल ठीक है कि विनाही शरण मुनि ज्ञानसुन्दरजी की छेड़छाड़ कर हमारे खरतर लोग बड़ी भारी भूल करते हैं। क्योंकि इनके न तो कोई आगे है और न कोई पीछे। इनका डङ्का चारों ओर बज रहा है। सत्य का संशोधन करने को इनकी शुरूसे आदत पड़ी हुई है । एवं सत्य कहने में व लिखने में यह किसी की भी खुशामदी नहीं रखते हैं । इस बात को भी इनको परवाह नही कि कोइ इनको सच्चा साधु माने या कोई ढोंगी, व्यभिचारी, दोषो, कलंकित वेषधारी, यति या गृहस्थ ही क्यों न माने ? । इन्हें इसका भी भय नहीं है कि कोई असभ्य शब्दों में आक्षेप कर इनपर कलंक ही क्यों न लगावें ? ये वीर इन सब बातों पर लक्ष्य नहीं देता हुआ अरनी धून में काम करता ही रहता हैं । पर खरतरगच्छवाले तो बहुत परिवारी है। बड़ी दुकान में घाटा नफा भी उसी प्रमाण से होता है, अतः क्या खरतरवाले अाज भूल गए हैं कि ? एक खरतर साधु को खरतरों के उपाश्रय में साध्वीके साथ मैथुन क्रिया करते हुए को खास खरतरों को साध्वीने ही रात्रि में पकड़ा था और वह साच्ची
१ सं० १९९४ श्रावण शुद ११ पाली में खरतर साधी प्रमोद श्री की देली साध्वी अबवल श्री भाग गइ थी जिसकी एक पत्रिका प्रकाशित हुई जिसमें खरतरों-के साधु साधियों की व्यभिचार लीला का ठीक दिग्दर्शन करवाया हैं अधिक जानने की अभिलाषावाला उस पत्रिका को देख कर निर्णय करा के। यहाँ तो उस पत्रिका का एक अंश मात्र बतलाया है।
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आज भी विद्यमान है। कइ खरतर साधुओंने तीर्थोपर इसी विडम्बना के कारण जूते भी खाये हैं और भी इनकी व्यभिचार लीला से ओतप्रोत अनेक पत्र भी कई स्थानोंपर पकड़े गए हैं । खरतरों में केवल साधु ही इस कोटिके नहीं पर इनकी साध्विये तो इनसे भी दो कदम आगे बढ़ी हुई है। इतना ही क्यों पर ऐसे कार्यो के लिए तो यदि इन साध्वियों को उन साधुओं के गुरु कह दिया जाय तो भी कुछ अतिशयोक्ति नहीं है । कारण कई साध्वियोंने तीर्थों पर अपना उदर रीता किया है तो कईएकोंने साधुवेश में गर्भ धारण कर गृहस्थ वन अपने उदर का बजन को हलका कर पुनः खरतरों के शिरपर गुरुत्व धारण किया हैं। कईएक साध्विएँ गृहस्थों के यहां से सोनो चांदी के डिब्बे उठा लाई तो कइएक साध्वियों की रकमें गृहस्थ हजम कर गये हैं । इत्यादि हजारों दोषों के पात्र होते हुए भी अपने कलंक को पब्लिक में प्रसिद्ध कर वाने की प्रेरणा सिवाय इन खरतर जैसे मृों के कोन करता है । अतएव खरतरों से मेरी सलाह है कि गच्छ कदाग्रह की वजह से थोड़े बहुत खरतर जानबूझ कर भी तुम्हारे दोषों को जहर के प्यालों की भाँति पी रहे हैं । पर तुम दूसरों की छेड़छाड़ कर अपनी रही सही कलुषित इजत को नीलाम करवाने की चेष्टा न करो! इसीमें तुम्हारा जीवननिर्वाह है। शेष फिर कभी समप मिलने पर......
आप का अन्तरभेदी, " एक अनुभवी"
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दो शब्द.
प्यारे खर-तरो ! आज से .५० वर्षपूर्व आपके पूर्वज अन्य गच्छवालों से मिल झूल कर चलते थे उस समय अन्य गच्छवाले आपके पूर्वाचार्यों के प्रति कैसी भक्ति एवं किस प्रकार पूजा करते थे ? और आज आपकी कुट नीति के कारण वही लोग आपसे तो क्या पर आपके पूर्वाचार्यों के नामसे किस प्रकार दूर भाग रहे हैं । इसका कारण क्या है जरा सोचो।
आपके अन्तिम आचार्य तिलोक्यसागरजी म० तथा श्रीमती साध्वी पुन्य श्रीजीने अन्य गच्छवालों के साथ किस प्रकार प्रेम रखकर उनको अपनी और आकर्षित किये थे । जब आज आप अन्य गच्छवालों के साथ द्वेष रख समाज का संगठन तोड़ने की कोशीस कर रहे हैं ? शायद ही ऐसा कोई स्थान बच सका हो कि जहां आपके उपदेश का अमल करनेवाले खरतरों का अस्तित्त्व हो और वहां आपने राग द्वेष के बीज न बोया हो ?
खैर ! इतना होनेपर भी आप अपना अपने गच्च का और अपने पूर्वाचार्यों का मान प्रतिष्ठा गौरव कहां तक बढाया । कारण खरतरगच्छवालें तो श्रापके आचार्यो की भक्ति पूजा करते ही थे और आज भी कर रहे हैं इसमें तो आपकी अधिकता हैं ही नहीं । जब अन्य गच्छवाले आपके पूर्वजों प्रति पूज्यभाव रक्ख सेवा पूजा करते थे आज उन्ही के मुंहा से आप अपने आचार्यों के अपमान के शब्द सुन रहे हो । इसमें निमित कारण तो आप ही हैं न ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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यदि आप अपना पतित आचार को छीपाने के लिये ही शान्त समाज में राग द्वेष फैला रहे हो तो आप का यह खयाल बिलकुल गलत हैं कारण अब जनता और विशेष खरतर लोग इतने अज्ञात नहीं रहे हैं कि आप इस प्रकार फूर कुसम्प फैला कर अपने पतित प्राचार की रक्षा कर सको । यह बात आपकी जानकारी के बहार तो नहीं होगा कि कई लोग खरतर होते हुए भी आप लोगों का मुंह देखने में भो महान् पाप समझते हैं ।
मेरा खयाल से तो आप इस प्रकार अन्यगच्छीय आचायों की व्यर्था निंदा कर अपना और अपने भक्तों का अहित ही कर रहे है यदि अन्य गच्छवाले आपका बिहिष्कार करदिया तो आपके चंद ग्रामों में मूठीभर हो भक्त रह जायगा ।
खरतरो ! अब भो समय है, आप अपनी द्वेष भावना को प्रेम में प्रणित कर दो सब गच्छवालों के साथ मिल झूलकर रहो । प्रत्येक गच्छ में प्रभाविक आचार्थ हुए हैं. उन सबके प्रति पूज्यभाव रक्खों । तुम अन्यगच्छीय आचार्यो के लिए पूज्यभाव रखोंगे तो आपके आचार्यों प्रति अन्य गच्छवाले भी पूज्यभाव रक्खेंगे । अतएव मूर्तिपूजक समाज में प्रेम, ऐक्यता और संगठन बढाओं इसमें सब के साथ साथ शासन का हित रहा हुवा हैं ।
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खर-तरों के हवाइ किल्ला की दीवारों ।
[ आधुनिक कर खरतरोंने अपनी और अपने गच्छ की उन्नति का एक नया मार्ग निकाला हैं जिसका खास उद्देश्य है कि अन्य गच्छीय आचार्य चाहे वे कितने ही उपकारी एवं प्रभाविक क्यों न हो उन की निंदा कर गलत फहमी फैला कर उन के प्रति जनता की अरूची पैदा करना और अपने गच्छ के आचार्यो की झूठो झूठी प्रशंसा कर भद्रिक लोगों को अपनी ओर झुकाना परन्तु उन लोगों को अबी यह मालुम नहीं हैं कि हम लोग इस प्रकार हवाइ किल्ला की दीवारें बना रहे हैं पर इस ऐतिहासिक युग में वे कहांतक खड़ी रह सकेगी। आज में उस हवाई किल्ला की दीवारों का दिग्दर्शन करवाने के लिये हो लेखनो हाथ में लो है ]
दीवार नम्बर १
कई खरतरगच्छवाले कहते या अपनी किताबों में लिखा करते हैं कि- आचार्य उद्योतनसूरिने बड़वृक्ष के नीचे रात्रि में नक्षत्रबल को जान कर अपने वर्धमानादि ८४ शिष्योंपर छांण [ सूखा गोबर ] का चूर्ण डाल उन्हें आचार्य बना दिये । और बाद में उन ८४ आचार्यों के अलग २ ८४ गच्छ हुए । अतः आचार्य उद्योतनसूरि ८४ गच्छों के गुरु हैं । शायद् आप का यह इरादा हो कि उद्योतनसूरि खरतर होने से ८४ गच्छों के गुरु खरतर है ?
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१०
समीक्षा - इस कथन की सच्चाई के लिये केवल किम्वदन्ती के अतिरिक्त कोई भी प्रमाण आज पर्यन्त किन्हीं खरतरगच्छीय विद्वानोंने नहीं दिया है। और इस कथन में सर्व प्रथम यह शङ्का पैदा होती हैं कि वे ८४ आचार्य और ८४ गच्छ कौन २ थे ? क्योंकि जैन श्वेताम्बर संघ में जिन ८४ गच्छों का जनप्रवाद चला आता है वे ८४ गच्छ किसी एक आचार्य या एक समय में नहीं बने हैं । पर उन ८४ गच्छों का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक का है । और उन ८४ गच्छों के स्थापक आचार्य भी पृथक् २ तथा ८४ गच्छ निकलने के कारण भी पृथकू २ हैं । इस विषय में तो हम आगे चलकर लिखेंगे, पर पहिले आचार्य उद्योतनसूरि के विषय मे थोड़ासा खुलासा कर लेते है कि आचार्य उद्योतनसूरि कब हुए और वे किस गच्छ या समुदाय के थे ? ।
चन्द्रकुलके स्थापक आचार्य चन्द्रसूरि भगवान् महावीरके १५ वे *पट्टधर थे और चन्द्रसूरिके १६ वें पट्टधर अर्थात्
* तपागच्छ की पट्टावल में चन्द्रसूरि को १५ वाँ पट्टधर लिखा है तब खरतर गच्छ की कइ पट्टावलियों मे चन्द्रसूरि को १८ वें पट्टधर लिखा है । इसका कारण यह है कि खरतर पट्टावलीकार एक तो महावीर को प्रथम पट्टधर गिनते हैं । दूसरा प्राचार्य यशोभद्र के संभूतिविजय और भद्रबाहु दो शिष्य हूए । दोनों को क्रमशः ७-८ वाँ पट्ट गिना है । तीसरा आर्यस्थूलभद्र के महागिरि और सुहस्ती इन दोनों शिष्यों कों भी क्रमशः दो पट्टधर गिन लेने से चन्द्रसूरि १५ वें पट्टधर आते हैं। इसमें कोइ विरोध तो नहीं घाता है । केवल गिनती की संख्या में ही न्यूनाधिकता है ।
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११
महावीर के ३१ वें पट्टधर आचार्य यशोभद्रसूरि हुए और इन यशोभद्रसूरि से चन्द्रकुल में दो शाखाएँ हुई जैसे कि:आचार्य यशोभद्रसूरि
प्रद्युम्न सूरि
मानदेवसूरि
विमलचंद्रसूरि
64
विमलचंद्रसूरि
देवसूर
नेमिचन्द्रसूरि
उद्योतनसूरि (वि. दशवीं शताब्दी) उद्योतनमृरि (वि. दशवीं शताब्दी)
"
इस शाखा में आगे चल कर
इस शाखा में आगे चल कर ४४ में पट्टधर जगञ्चन्द्रसूरि से चन्द्रकुलका नाम तपागच्छ हुआ"
४४ पट्टधर जिनदत्तसूरि से चन्द्रकुल का खरतर नाम हुआ'
उपर्युक्त वंशावलि से पाया जाता है कि उस समय उद्योतनसूरि नाम के दो आचार्य हुए होगे । एक प्रद्युम्न सूरि की शाखा में विमलचंद्र के शिष्य और सर्वदेव के गुरु | दूसरे - विमलचंद्र शाखा में नेमिचन्द्र के शिष्य और वर्धमान के गुरु । यही कारण है कि तपागच्छ की पट्टावली में लिखा है कि उद्योतनसूरिने वड़वक्ष के नीचे सर्वदेवादि आठ आचार्यों को सूरिपद देने से वनवासी गच्छ का नाम बड़गच्छ हुआ । और खरतरगच्छ की पट्टावली में लिखा है कि- वर्धमानादि ८४ शिष्यों को उद्योतनसूरि ने आचार्यपद देने से बडगच्छ नाम हुआ । अंचलगच्छ की शतपदी में इन से भिन्न कुछ और ही लिखा है। वहां लिखते हैं कि केवल एक सर्वदेवसूरिको ही बड़वृक्ष के नीचे आचार्य बनाने से वनवासी गच्छ
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का नाम बड़गच्छ हुआ है । खैर ! कुछ भी हो हमें तो यहां उद्योतनसूरि द्वारा ८४ आचार्या से ८४ गच्छ हुए उनका ही निर्णय करना है।
यदि कोई व्यक्ति इधरउधर के नाम लिख कर चौरासी गच्छ और आचार्यो की संख्या पूर्ण कर भी दे तो इस वीस: शताब्दी में केवल नाम से ही काम चलने का नहीं है, पर उन नामों के साथ उनको प्रमाणिकता के लिये भी कुच्छ लिखना आवश्यक होगा जैसे किः-उन ८४ आचार्योने अपने जीवन में क्या क्या काम किए ? किन २ आचार्योने क्या २ ग्रंथ . बनाये ? किसने कितने मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई आदि २ इस प्रकार उन आचार्य और गच्छों का सत्यत्व दिखाने के लिये कुछ ऐतिहासिक प्रमाणों की भी आवश्यकता है। आशा है. हमारे खरतरगच्छीय विद्वान् अपने लेख की सत्यता के लिए ऐसे प्रमाण जनता के सामने जरूर रखेंगे कि जिस से उन पर विश्वास कर उद्योतनसूरि को ८४ गच्छों का स्थापक गुरु मानने को वह तैयार हो जायं ।
यदि खरतरों के पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं है तो फिर यह कहना फि उद्योतनसूरिने ८४ शिष्यों को आचार्य पद दिया और उन आचार्यो से ८४ गच्छ हुए यह केवल अरण्यरोदनवत् पर्था का प्रलाप ही समझना चाहिये ।
दीवार नम्बर २ कई खरतरगच्छवाले यह भी कहते हैं कि वि. सं. १०८० में पाटण के राजा दुर्लभ की राजसमा में आचार्य
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जिनेश्वरथरि और चैत्यवासियों के आपस में शास्त्रार्थ हुआ । जिस में जिनेश्वरसूरि को खरा रहने से राजा दुर्लभने खरतर बिरुद दिया और चैत्यवासियों की हार होने से उनको कवला कहा । इत्यादि ।
समीक्षाः-इस लेख की प्रामाणिकता के लिये न तों कोई प्रमाण दिया है और न किसी प्राचीन ग्रन्थ में इस बात की गंध तक भी मिलती है । खरतरों की यह एक आदत पड़ गई है कि वे अपने दिल में जो कुछ आता है उसे अडंगबडंग लिख मारते हैं जैसे कि खरतरगच्छीय यति रामला. लजी अपनी " महाजनवंश मुक्तावली" नामक पुस्तक के पृष्ठ १६८ पर उक्त शास्त्रार्थ उपकेश गच्छाचार्यों के साथ होना लिखते हैं और खरतरगच्छोय मुनि मग्नसागरजीने अपनी " जैनजाति निर्णय समाक्षा " नामक पुस्तक के पृष्ट ६४ में एक पट्टावलि का आधार लेकर के लिखा है कि:___" ३६ तत्पट्टे यशोभद्रसूरि लघु गुरुभाई श्रीनेमिचन्द्रसूरि एहवइ डोकरा आ० गुरुश्री उद्योतनसूरिनी प्राज्ञा लइ श्रीअंझहारी नगर थकी विहार करतां श्रीगुर्जरइ अणहलपाटणि आवी वर्धमानसूरि स्वर्गे हुआ तेहना शिष्य श्रीजिनेश्वरसूरि पाटणिराज श्रीदुर्लभनी सभाई कूर्चपुरागच्छीय चैत्यवासी साथो कास्यपात्रनी चर्चा कीधी त्यां श्रीदशवकालिकनी चर्चा गाथ कहोने चैत्यवासोने जीत्या तिवारई राज श्रीदुर्लभ कहइ "ऐ प्राचार्य शास्त्रानुसारे खरूं बोल्या." ते थकी वि.सं. १०८० वर्षे श्री जिनेश्वरसरि खरतर विरुद लीधो। तेहना शिष्य जिनचंद्र-लघु गुरुभाइ अभयदेव सूरि हुआ। तत्पाटे श्री
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जिनवल्लभसूरि हुआ। तिणे चित्रकूट पर्वती आवी श्रीमहावीर नओ छटो कल्याणक प्ररूप्यो xxx इत्यादि." उपर्युक्त लेख का सारांश निम्न लिखित हैं:
१-वर्धमानमूरि का स्वर्गवास पाटण में हुआ बाद जिनेश्वरमरिने चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ किया ।
२-शास्त्रार्थ जिनेश्वरसूरि और कूर्चपुरागच्छीय चैत्यवासियों के आपस में हुआ था।
३-राजा दुर्लभने कहा था " ए आचार्य शास्त्रानुसार खलं बोल्या ” इस शब्द को ही जिनेश्वरमरिने खरतर विरुद मान लिया।
४-शास्त्रार्थ का विषय था कांस्य (कांसी) पात्र का।
५-जिनवल्लभमूरिने चित्तौड़ के किले में भगवान् महावीर का छट्ठा कल्याणक की प्ररूपणा की। समीक्षाः[विद्वानों को इन खरतरों के प्रमाणपर जरा ध्यान देना चाहिये]
(१) पाटण के इतिहास से यह निश्चय हो चुका है कि पाटण में दुर्लभ राजा का राज वि. सं. २०७८ तक था । अर्थात् १०७८ में दुर्लभ राजा का देहान्त हो चुका था तब वर्धमानसूरिने वि. सं १०८. में आबू के मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई थी। बाद वे किस समय परलोकवासी हुए और उनके बाद कब जिनेश्वर सरिने चैत्यवासियों के साथ
में दलज वि. सवय हो चुका
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शास्त्रार्थ किया होगा ?; क्योंकि वर्धमानसरिने जब आबू के मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई थी तब तो दुर्लभ राजा का देहान्त हुए को दश वर्ष हो चुके थे तो क्या शास्त्रार्थ के समय फिर दुर्लभ राजा भूत होके दश वर्षों से वापिस आया था ? जोकि उनके अधिनायकत्व में जिनेश्वरसूरिने शास्त्रार्थ कर खरतर विरुद्ध प्राप्त किया । जरा इस बात को पहिले सोचना चाहिये।
(२) शास्त्रार्थ कूपुरा गच्छवालों के साथ हुआ तव यति रामलालजी आदि खरतरों का यह कहना तो बिलकुल मिथ्या ही है न ? कि खरा रहा सो खरतरा और हारा सो कवला । कारण कूर्चपुरागच्छ को कोई कवलानहों कहते हैं। कवला तो उपकेशगच्छवालों को ही कहते हैं। शास्त्रार्थ वताना कूर्चपुरागच्छके साथ और हार बतलानी उपकेशगच्छवालों की। ऐसा अनूठा न्याय खरतरों के अलावा किस का हो सकता है ? । शायद ! यति रामलालजी आदि को कोई दूसरा दर्द तो नहीं है क्यों कि बीकानेर में उपके रागच्छवालों के अधिकार में १४ गवाड़ ( मुहल्ले ) हैं तब खरतरो के ११ गवाड़ हैं और इन दोनों के आपस में कसाकसी चलती ही रहती है। संभव हैं इसी कारण खरतर यतियोंने यह युक्ति गढ़ निकालो हो कि खरतर का अर्थ खरा और कवलों का अर्थ हारा हुआ, पर उस समय यतियों को यह भान नहीं रहा कि आगे चल कर मुनि मग्नसागर जैसे खरतर साधु ही हमारी इस कल्पित युक्ति को ठुकरा देंगे ? जैसा कि हम पहिले लिख आए हैं।
(३) यदि हम मुनि मग्नसागरजी का कहना कुछ देर के लिये मान भी लें तो-राजा दुर्लभने तो इतना हो कहा किShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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“ ऐ आचार्य शास्त्राऽनुसार खरूं बोल्या " बस. इस शब्द पर ही जिनेश्वरसूरिने खरतर विरुद मान लिया ? यदि हां, तब तो इस बिरुद की क्था कीमत हो सकती है और राजा दुर्लभने तो किसी को कवला कहा ही नहीं फिर खरतर यह कवला शब्द कहां से लाया ?
(४) राजा दुर्लभ स्वयं बड़ा भारी विद्वान् था । उस की सभा में अच्छे २ विद्वान उपस्थित रहते थे। जिनेश्वरसूरि भी विद्वान् हो होंगे । फिर कामीपात्र का ऐसा कोनसा तात्त्विक विषय था ? जिस का कि निर्णय राजसभा में करवाने को शास्त्रार्थ करना पड़ा । चैत्यवासीयों का समय विक्रम की पहली-दूसरी शताब्दीसे तेरहवीं शताब्दो का है। क्या इतने दीर्घकालीक अर्से में किसी चैत्यवासीने साधु के लिए कांसीपात्र रखने का कहा हैं ? जो कि जिनेश्वरसूरि को एक साधारण बात के लिए इतना बड़ा भारो शास्त्रार्थ करना पड़ा ? । इस से मालूम होता है कि या तो जिनेश्वरसूरि कोई साधरण व्यक्ति होंगे या खरतरोंने यह कोई कल्पित ढांचा ही तैयार किया हैं।
(५) जिनवल्लभसरिने-चितोड़ के किले पर महावीर के छ कल्याणक की प्ररूपणा की; यही कारण हैं कि चैत्य. वासियोंने जिनवल्लभसूरि को उत्सूत्रप्ररूपक निह्नव घोषित कर दिया और यह बात उपर के लेख से सिद्ध भी होती हैं।
वास्तव में न तो दुर्लभराजाने खरतर बिरुद दिया और न खरतरों के पास इस विषय का कोई प्रबल प्रमाण ही हैं । आचार्य जिनदत्तरि की प्रकृति खरतर होने के कारण लोग उनको
सरतर सरतर कहा करते थे । पहिले तो यह सब अपमान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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के रूप में समझा जाता था पर कालान्तर में यह गच्छ के रूप में परिणत हो गया ।
यदि ऐसा न होता तो जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागर सूरि, धनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि और जिनवल्लभसूरि आदि जो आचार्य हुए और जिन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना भी की, पर किसी स्थान पर उन्होंने खरतर शब्द नहीं लिखा | क्या शास्त्रार्थ के विजयोपलक्ष्य में मिला हुआ विरुद इतने दिन तक गुप्त रह सकता है ? क्या किसी को भी यह खरतर शब्द याद नहीं आया ? इतना हो क्यों बल्कि आचार्य अभयदेवसूरि और जिनदत्तसूरि के गुरु जिनवल्लभसूरिने अपने आपको ही नहीं किन्तु वर्धमानसूरि और जिनेश्वरसूरि तक को अपने ग्रंथों में चन्द्रकुलीय लिखा है ।
खरतरगच्छीय कई लोगोंने खरतर शब्दको प्राचीन सिद्ध करने के लिए विक्रम की बारहवीं शताब्दी के कई प्रमाण ढूँढ निकाले हैं जो कि जिनदत्तसूरि के साथ संबंध रखनेवाले हैं । किन्तु सांप्रतिक इतिहास संशोधक लोग तो जिनेश्वरसूरि के समय के प्रमाण चाहते हैं पर खरतरों के पास इनका सर्वथा अभाव ही है । खरतर लोग जिन प्रमाणों को देख फूले नहीं समाते हैं वे प्रमाण जिनेश्वरसूरि को खरतर बनाने में तनिक भी सहायता नहीं देते है, अतः खरतरों का कर्त्तव्य है कि वे या तो अपनी इस भूल को सुधार लें कि वि. सं. १०८० में जिस शास्त्रार्थ का उल्लेख हम और हमारे पूर्वजोंने किया है वह गलत है या इस विषय के विश्वसनीय प्रमाण उपस्थित करें। मैं इस विषय में यहां अधिक लिखना इस कारण ठोक नहीं समझता हूं कि मैंने " खरतरगच्छोत्पत्ति " नामक एक स्वतंत्र
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पुस्तक इस विषय की प्रकाशित करवा दी है। उसमें अकाट्य ऐतिहासिक और खास खरतरों के ग्रन्थों के ही प्रमाणों से यह सिद्ध करदिया है कि खरतर शब्द जिनेश्वरसूरि से नहीं पर जिनदत्तसूरि की प्रकृति से हो पैदा हुआ है और यह प्रारंभ में अपमानसूचक होने के कारण खरतरोंने उसे कइ वर्षों तक नहीं अपनाया । इसकी साबूती के लिए मैंने खरतराचार्यो के कई शिलालेख भी दिये हैं और बताया है कि खरतर शब्द आमतौर पर जिनकुशलसूरि के समय में ही काम में लिया गया है।
यदि किसी भाई को इस बातका निर्णय करना हो तो खरतरगच्छोत्पत्ति नामक पुस्तक को मंगवाकर पढ़ना चाहिए।
दीवार नम्बर ३ . कई लोग आचार्य जिनदत्तमुरि को युगप्रधान कहा करते हैं तो क्या आचार्य जिनदत्तमूरि युगप्रधान थे ?
__ समीक्षा युगप्रधानों की नामावली में जिनदत्तसूरि का नाम नहीं है, पर गच्छराग के कारण कई लोग अपने २ आचार्यो को युगप्रधान लिख देते हैं। इस समय युगप्रधान दो कोटि के समझे जाते हैं:
१-नाम युगप्रधान और २-गुण युगप्रधान, यदि जिनदत्तसूरि नाम युगप्रधान हो तो इस में विवाद को स्थान नहीं मिलता हैं और उनकी कीमत भी कृपाचन्द्रसूरि आदि से अधिक नहीं हो सकती हैं । दूसरा गुण युगप्रधान के लिए युगप्रधान के गुण होना चाहिए वे जिनहससूरि में नहीं थे; क्यों कि
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(१) युगप्रधान उत्सूत्र की प्ररूपणा नहीं करते हैं किन्तु जिनदत्तसूरिने पाटण नगर में यह प्ररूपणा की थी कि स्त्री जिनपूजा नहीं कर सके । इस से जिनदत्तसूरि को अर्द्ध ढूंढिया कहा जा सकता हैं, क्यों कि ढूंढियोंने पुरुष और स्त्रियें दोनों को जिनपूजा का निषेध किया हैं और जिनदत्तसूरिने एक स्त्रियों को हो प्रभुपूजा का निषेध किया । किन्तु शास्त्रों में विधान है कि द्रौपदी, मृगावती, जयन्ति, प्रभावती, चेलना प्रादि स्त्रियोंने प्रभुपूजा की हैं और इस शास्त्राज्ञा को जिनदत्तसूरि के गुरुतक भी मानते आए थे । केवल जिनदत्तसूरिने ही "स्त्री जिनपूजा न करे" ऐसा कह कर जिनाज्ञा का भंग किया। अर्थात् उत्सूत्र की प्ररूपणा की। क्या ऐसे जिनाज्ञाभञ्जक को हो युगप्रधान कहते हैं ? ।
(२) युगप्रधान उत्सूत्रप्ररूपकों का पक्ष नहीं करते हैं तब जिनदत्तसूरिने छ कल्याणक प्ररूपक जिनवल्लभसूरि का पक्ष कर खुदने भी भगवान् महावीर के छः कल्याणक की प्ररूपणा कर कई भद्रिक जैन लोगों को सन्मार्ग से पतित बनाया। क्या ऐसे उत्सूत्रप्ररूपक भो युगप्रधान हो सकते हैं ?
(३) युगप्रधान किसी को शाप नहीं देते हैं तब जिनदत्तसूरिने पाटण के अंबड श्रावक को शाप दिया कि जा ! तूं निर्धन एवं दुःखी होगा ( देखो दादाजी की पूजा में )
(४) युगप्रधान की आज्ञा सकल संघ शिरोधार्य करते हैं तब चन्द व्यक्तियों के सिवाय जैन संघ जिनदत्तसूरि को उत्सूत्रप्ररूपक मानते थे ।
(५) युगप्रधान आचार्यपद के लिए झगड़ा नहीं करते है किन्तु जिनवल्लभसूरि का देहान्त के वाद जिनदत्तसूरि और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जिनशेखरसूरिने आचार्य पदवी के लिए झगड़ा किया। जिनदत्तसूरि कहते थे कि मैं आचार्य होऊँगा और जिनशेखरसूरि कहते थे कि मैं प्राचार्य बनंगा । आखिर दोनों आचार्य बन गए। क्या युगप्रधान ऐसे ही होते हैं ? सकल संघ तो दूर रहा पर एक गुरु की संतान में भी इतना झगड़ा होवे और ऐसे झगड़ालुओं को युगप्रधान कहना क्या हमारे खरतरों का अन्तरात्म स्वीकार कर लेगा ?।।
(६) यदि "महाजनवंश मुक्तावली' पुस्तक के कथन को खरतर लोग सत्य मानते हो तो जिनदत्तसूरिने कई स्थान पर गृहस्थों के करने योग्य कार्य किये हैं। क्या जैन शासन में ऐसे व्यक्तियों को युगप्रधान माना जा सकता है ?
(७) अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतुंगसूरिने अपने शतपदी ग्रंथ के १४९ पृष्ठ पर जिनदत्तसूरि की नवीन आचरणा के बारे में पच्चीस बातें विस्तार से लिखी हैं। पर मैं उनसे कतिपय बातें पाठकों की जानकारी के लिए यहां उघृत करदेता हुँ । वे लिखते हैं कि जिनदत्तसूरिः
१-श्राविकाने पूजानो निषेध कर्यो । २-लबण ( निकम ) जल, अग्नि में नोंखवू ठेराव्यो।
३-देरासर में जुवान वेश्या नहीं नचावी किन्तु जे नानी के वृद्ध वेश्या होय ते नचाववी एवी देशना करी ।
४-गोत्रदेवी तथा क्षेत्रपालादिकनी पूजाथी सम्यक्त्व भागे नहि एम ठेराव्युं । ___ -अमेज युगप्रधान छीए एम मनाया मांडयुं.
६-वली एवी देशना करवा मांडी के एक साधारण खातानुं बाजोठ (पेटी) राखावू तेने आचार्यको. हुकम 'लइ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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उघाडवू । तेमांना पैसामांथो आचार्यादिकना अग्निसंस्कार स्थाने स्तूपादिक कराववी तथा त्यां यात्रा अने उजणीओ करवी।
७-आचार्योनी मूत्तियों कराववी । ।
८-चक्रेश्वरीनो स्तुति में जिनदत्तसूरि कर्तुं छे के विधि 'मार्गना शत्रुओंना गला कापनार चक्रेश्वरी मोक्षार्थी जनना विघ्न निवारो।
९-श्रावकने तीन वार सामायिक उच्चराववानी प्ररूपणा करवा मांडी।
१०-अजमेरमा पार्श्वनाथना देरामां तथा पोसहशालामा सरस्वतीनों प्रतिमा थपावी । एज देहरामा जेमने मांस पण चढ़े छे एवी शीतला वगेरा देवियों थपावी ।
११-ऐरावण समारूढ इत्यादि बलो उड़ावी दिकूपालोंनी पूजा करवाना श्लोकों तथा “सद्वेद्यां भद्रपीठे' इत्यादि काव्यों चैत्यवासी वादिवैताल शान्तिसूरिना करेल होवाथी सुविहितोए निषेध कर्या छतां जिनदत्तसूरिए चलाव्या ।
इनके अलावा और भी कई बातों को रहो बदल कर स्वच्छन्दता पूर्वक आचरण प्रचलित करडाली। क्या ऐसे भी युगप्रधान हो सकते है ?।। ___इस विषय में में अब अधिक लिखना ठीक नहीं समझता हुँ । कारण एक तो ग्रन्थ बढ़जाने का भय है, दूसरा खरतरों में सत्य स्वीकार करने की बुद्धि नहीं है। वे तो उल्टा लेखक ऊपर एकदम टूट पड़ते हैं। खैर! फिर भी मैं तो उनका उपकार ही समझता हूं कि उन्होंने मुझे इस लेख
१. जिनवल्लभमूरिने अपना विधिमार्ग मत अलग स्थापित किया।
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के लिखने की प्रेरणा की और विश्वास है आगे भी इस प्रकार करते रहेंगे ताकि मुझे प्राचीन ग्रंथ देखने का अवसर मिलता रहे।
खरतरों का यह सर्व प्रथम कर्तव्य है कि वे हो-हा-का हुल्लड न मचा कर जिनदत्तसूरि को गुणयुगप्रधान होना सिद्ध करने के लिए ऐसे २ प्रमाण ढूंढ निकालें कि जिनपर सर्व साधारण विश्वास कर सके ।
एकादो अज
दीवार नं. ४, कइ लोग यह भी कह उठते है कि जिनदत्तमरिने अपने जीवन में १२५००० नये जैन बनाए थे ।
समीक्षाः-जैनाचार्योने लाखों नहीं पर करोडों अजैनों को जैन धर्म के उपासक बनाये जिसके कई प्रमाण मिलते हैं। पर जिनदत्तसूरिने किसी एकादो अजैन को भी जैन बनाया हो इसका एक भी प्रमाण नहीं मिलता है। हां जिनवल्लभ सूरिने चित्तौड़ के किले में रहकर भगवान् महावीर के पांच कल्याणक के बदले छः कल्याणककी नयी प्ररूपणा की तथा जिनदत्तसूरिने पाटण में स्त्री जिनपूजाका निषेध किया इस कारण जैनसंघने इसका बहिष्कार करदिया था । इधर इनके गुरुभाइ जिनशेखरसूरि के पक्षकार भी जिनदत्तसूरि से खिलाफ होगए थे। इस हालत में जिनदत्तवरिने इधरउधर घूमकर भद्रिक जनों को महावीर के पांच कल्याणक के बदले छः कल्याणक मनवा कर तथा लियों को प्रभुपूजा छुड़ाकर बारह करोड़ जैनों में से सवालाख भद्रिक जनोंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
सुरिने का एक भी
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पूर्व मान्यता से पतित बनाकर अपने पक्ष में कर भी लिया हो तो इस में दादाजीने क्या बहादुरी की ? | क्योंकि उस समय जैनियों की संख्या कोई बारह करोड़ की थी और उसमें से यंत्र मंत्र तंत्र आदि कर सवालाख मनुष्यों को पतित बनाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है जिस से कि खरतरे अब फूले हो नहीं समाते हैं । यदि खरतर इसमें ही अपना गौरव समझते हैं, तो इससे भी अधिक गौरव ढूंढिया तेरहपंथियों के लिए भी समझना चाहिये । क्योंकि दादाजीने तो १२ करोड़ में से सवालाख लोगों को अपने पक्ष में किया, पर ढुंढिया तेरहपन्थियोंने तो लाखों मनुष्यो से दो तीन लाख लोगों को पूर्व मान्यता से पतित बना कर अपने उपासक बना लिए । कहिये ! अब विशेषता किस की रहीं ? ढूंढियों के सामने तुम्हारे दादाजी के सवालाख शिष्य किस गिनति में गिने जा सकते हैं ? |
अस्तु ! आधुनिक जिनदत्तसूरि के भक्तोंने जिनदत्तसूरि का एक जीवन लिखा है । उसमें जिन जातियों का उल्लेख किया है उनमें से एक दो जातियों के उदाहरण मैं यहां दे देता हूं कि जिन जातियों कों जिनदत्तसूरि से प्रतिबोधित लिखी
। वे जातियें इतनी प्राचीन हैं कि उस समय ये दादाजी तो क्या पर इन दादाजी की सातवीं पीढ़ी का भी पता नहीं था । अर्थात् वे जातिएँ दादाजी के जन्म के १५०० वर्षो पूर्व भी मौजूद थी । जैसा कि खरतरोंने चोरड़िया जाति के लिये लिखा है कि
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( १ ) चंदरी के राजा खरहत्थ को जिनदत्तसूरिने प्रतिबोध कर जैन बनाया, और चौरों के साथ भिड़ने से उसको जाति चोरड़िया हुई इत्यादि लिखा है ।
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રષ્ઠ
अब देखना यह है कि चोरड़िया जाति शुरू से स्वतंत्र जाति है या किसो प्राचीन गोत्र की शाखा हैं ? यदि किसी प्राचीन गोत्र की शाखा है तो यह मानना पड़ेगा कि पहले गोत्र हुआ और बाद में उसकी शाखा हुई। इसके लिए यों तो हमारे पास इस विषय के बहुत प्रमाण हैं, जो चोरड़िया, बाफना, संचेती, रांक और बोत्थरों की किताब में विस्तार से लिखूँगा । पर यहां केवल दो शिलालेख और एक सरकारी परवाना की नकल देता हूं जो कि निम्न लिखित हैं:सं. १९२४ वर्षे मार्गशीर्ष सुद १० शुक्रे उपकेशज्ञातौ आदित्यनाग गोत्रे सा० गुणधर पुत्र सा० डाला भा० कपुरी पुत्र स० क्षेमपाल भा० जिणदेबाई पुत्र सा० सोहिलन भातृ पासदत्त देवदत्त भा० नामयुत्तेन पुण्यार्थ श्री चन्द्रप्रभ चतुविंशति पट्ट कारितः प्रतिष्ठा श्री उपकेशगच्छे कुकुदाचार्य सन्ताने श्री कक्कसूरिः श्रीभद्रनगरे "
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बाबू पूर्णचंद्रजी नाहर सं. शि० प्र० पृष्ठ १३ लेखांक ५०
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X
X
X
"सं. १५६२ व० वै० सु० १० खौ उपकेशज्ञातौ भीआ दित्यनाग गोत्रे चोरड़िया शाखायां सा० डालण पुत्र रत्नपालेन स० श्रीपत व० धधुमलयुतेन मातृ पितृ श्रे० श्रीसंभवनाथ बिं० का० प्र० उपकेश गच्छे ककुदाचार्य (सं०) श्री देवगुप्तसूरिभिः बाबू पूर्ण सं० शि० प्र० पृष्ठ ११७ लेखांक ४९७
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X
X
x
ऊपर दिये हुए शिलालेखों में पहले शिलालेख में आदित्यनाग गोत्र है और दूसरे में आदित्यनाग गोत्र की शाखा चोरड़िया लिखी है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि X हम चोरबिया खरतर नहि है' नामक किताब देखो.
•
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चोरडिया जाति का मूल गोत्र आदित्यनाग है और उसके स्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरि है। गोलेच्छा, पारख, गदइया, सावसुखा, नाबरिया, बुचा वगैरह ८४ जातिएँ उस आदित्यनाग गोत्र की शाखाएँ हैं ।
खरतरगच्छीय यति रामलालजीने अपनी " महाजनवंश मुक्तावली” नामक पुस्तक के पृष्ठ १० पर आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा स्थापित 'अठारह गोत्र में " अइचणागा" अर्थात् आदित्यनाग गोत्र लिखा है फिर समझ में नहीं प्राता है कि जिनदत्तसूरि का जीवन लिखनेवाले आधुनिक लोगोंने यह क्यों लिख मारा कि जिनदत्त मृरिने चोरडिया जाति बनाई ? । जहां चोरड़ियों के घर हैं वहां वे सबके सब आज पर्यन्त उपके रागच्छ के श्रावक और, उपकेशगच्छ के उपाध्य में बैठनेवाले हैं और उपके रागच्छ के महात्मा ही इनको वंशावलियों लिखते हैं ।
दूसरा आचार्य जिनदत्तसूरि का जीवन गणधर सार्द्धशतक की बृहद् वृत्ति में लिखा है परन्तु उसमें इस बातको
१ खरतर यति रामलाल जाने अपनी " महाजनवंश मुक्तावली" किताब के पृष्ठ १० पर प्राचार्यरत्नप्रभसूरि द्वारा स्थापित महाजन. वंशके अठारह गौत्रों के नाम इस प्रकार लिखे हैं:
" तातेड़, बाफना, कर्णाट, बलहरा, मोरक, कुलहट, विरहट, श्री(श्रीमाल, श्रेष्ठि, सहचेती ( संचेती), अाचणागा ( आदित्यनाग) भुरि, भाद्र, चिंचट, कुमट, डिडु, कनोजिया, लघुश्रेष्ठि.
इनमें जो अइचणाग ( आदित्यनाग ) मूल गोत्र है। चोरडिया उसकी शाखा है जो उपर के शिलालेख में बतलाइ गइ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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गन्ध तक भी नहीं है कि जिनदत्तसूरिने चोरडिया जाति एवं सवालाख नये जैन बनाये थे ।
संभव है कई ग्रामों में खरतरगच्छ के आचार्योने भ्रमण किया होगा और गुलेच्छा, पारख, सावसुखा आदि जो चोरड़ियों की शाखा हैं उन्होंने अधिक परिचय के कारण खरतरगच्छकी क्रिया करली होगी। इससे उनको देख कर आधुनिक यतियोंने यह ढाँचा खड़ा कर दिया होगा ? परन्तु चोरडिया किसी भी स्थान पर खरतरों की क्रिया नहीं करते हैं। हां गुलेच्छा, पारख वगैरह चोरड़ियों की शाखा होने पर भी कई स्थानों में खरतरों की क्रिया करते हों और उन्हें खरतर बनाने के लिए " चोरड़ियों को जिनदत्तसूरिने प्रतिबोध दिया " ऐसा लिख देना पड़ा है। जो " मान या न मान मैं तेरा मेहमान " वाली उक्ति को सर्वांश में चरितार्थ कर बतलाई हैं। पर कल्पित बात आखिर कहाँ तक चल सकती है ? इस चोरडिया जाति के लिए एक समय अदालतो मामला भी चला था और अदालतने मय साबूती के फैसला भी दे दिया था । इतना ही क्यों पर जोधपुर दरबार से इस विषय का परवाना भी कर दिया था। जिसकी नकल मैं यहां उधृत कर देना समुचित समझता हूँ।
-: नकल :
श्रीनाथजी
मोहर छाप
श्रीजलंधरनाथजी
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संघवीजी श्री फतेराजजी लिखावतों गढ़ जोधपुर, जालोर, मेड़ता, नागोर, सोजत, जैतोरण, बीलाड़ा, पाली, गोड़वाड़, सीवाना, फलोदी, बिड़वाना, पर्वतसर, वगैरह परगनों में ओसवाल अठारह खोपरी दिशा तथा थारे ठेठु गुरु कवलागच्छरा, भट्टारक सिद्धसूरिजी है जिणोंने तथा इणारा चेला हुवे जिणांने गुरु करीने मानजो ने जिको नहीं मानसी तीको दरबार में रु० १०१) कपुररा देशीने परगना में सिकादर हुसी तीको उपर करसी । इणोंरा आगला परवाणां खास इणोंकने हाजिर हैं।
(१) महाराजाजी श्री अजितसिंहजीरी सिलामतीरो खास परवाणो सं. १७५७ रा आसोज सुद १४ रो।
(२) महाराज श्री अभयसिंहजीरी खास सिलामतीरो खास परवीणो सं. १७८१ रा जेठ सुद ६ रो।
(३) महाराज बड़ा महाराज श्री विजयसिंहजीरी सिलामतीरो खास परवाणो सं. १८३५ रा आषाढ वद ३ रो।
(४) इण मुजब पागला परवाणा श्री हजुर में मालुम हुअा तरे फेर श्री हजुररे खास दस्तखतोरो परवाणो सं. १८७७ रा वैशाख वद ७ रो हुयो है तिण मुजब रहसी ।
विगत खांप अठारेरी-तातेड़, बाफणा, वेदमुहता, चोरडिया, करणावट, संचेती, समदड़िया, गदइया, लुणावत, कुम्भट, भटेवरा, छाजेड़, वरहट, श्रीश्रीमाल, लघुश्रेष्ठी, मोरखपोकरणा, रांका, डिडू इतरी खॉपांवाला सारा भट्टारक सिद्धसूरि और इणोंरा चेला हुवे जिणांने गुरु करने मानजो अने गच्छरी लाग हुवे तिका इणांने दीजो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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अबार इणोंरेने लुकोरा जतियोंरे चोरडियोंरी खांपरी असरचो पड़ियो, जद अदालत में न्याय हुबोने जोधपुर, नागोर, मेड़ता, पीपाड़रा चोरडियोंरी खबर मंगाई तरे उणोंने लिखायो के मारे ठेठु गुरु कवलागच्छरा है तिणा माफिक दरबारसु निरधार कर परवाणो कर दियो हैं सो इण मुजब रहसी श्री हजूररो हुकम है । सं. १८७८ पोस वद १४ ।
इस परवाना के पीछे लिखा हैं ( नकल हजूररे दफ्तर में लोधी छे )
इन पांच परवानों से यह सिद्ध होता है कि अठाग गोत्रवाले कवला ( उपके ग ) गच्छ के उपासक हैं । यद्यपि इस परवाना में १८ गोत्रों के अन्दर से तीन गोत्र कुलहट चिंचट ( देसरड़ा ), कनोजिया इस में नहीं आये हैं। उनके बदले गदइया, जो चोरड़ियों की शाखा है, लुनावत और छाजेड़ जो उपकेश गच्छाचार्याने बाद में प्रतिबोध दे दोनों जातियां बनाई हैं इनके नाम दर्ज कर १८ की संख्या पूरो को है । तथापि मैं यहां केवल चोरडिया जाति के लिये हो लिख रहा है। शेष जातियों के लिए देखो" जैनजाति निर्णय" नामक मेरी लिखी हुई पुस्तक ।
ऊपर के शिलालेखों से और जोधपुर दरबार के पांच 'परवानों से डंका को चोट सिद्ध है कि चोरडिया जाति जिनदत्तसूरिने नहीं बनाई, पर जिनदत्तसूरि के पूर्व १५०० वर्षो के आचार्य रत्नप्रभसूरिने " महाजन संघ"बनाया था उसके अन्तर्गत प्रादित्यनाग गोत्र की एक शाखा चोरडिया है। जब चोरडिया जाति उपकेशगच्छ की उपासक है तब चोरडियों से निकली हुई गुलेच्छा, गदया, पारख, साषसुखा, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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बुचा, नाबरिया आदि ८४ जातिएं भी उपकेश गच्छाचार्य-प्रति. बोधित उपकेशगच्छोपासक ही हैं ।।
यदि किसी स्थान पर कोई जाति अधिक परिचय के कारण किसी अन्य गच्छ की क्रिया करने लग जायं तो भी उनका गच्छ तो वही रहेगा जो पूर्व में था। यदि ऐसा न हो तो पूर्वाचार्य प्रतिबोधित कई जातियों के लोग ढूंढिया, तेरहपन्थियों के उपासक बन उनको क्रिया करते हैं, पर इस से यह कभी नहीं समझा जा सकता कि उन जातियों के प्रतिबोधक दंढकाचार्य हैं । इसी भांति खरतरों के लिए भी समझ लेना चाहिये । इस विषय में यदि विशेष जानना हो तो मेरो लिखी “जैनजातियों के गच्छों का इतिहास" नामक पुस्तक पढ़ कर निर्णय कर लेना चाहिये ।
जिनदत्तसूरि के बनाये हुए सवा लाख जैनों में एक बाफना जाति का भी नाम लिखा है परन्तु वह भी जिनदत्तसूरि के १५०० वर्ष पूर्व आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा बनाई गई थी : और वाफनो का मूल गोत्र वप्पनाग है। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी तक बाफनों का मूल गोत्र बप्पनाग ही प्रसिद्ध थो, इतना ही क्यों पर शिलालेखों में भी उक्त नाम ही लिखा जाता था । उदाहरणार्थ एक शिलालेख की प्रति लिपी यह है___“सं. १३८६ वर्षे ज्येष्ठ व० ५ सोमे श्रीउपकेशगच्छे बप्पनाग गोत्रे गोल्ह भार्या गुणादे पुत्र मोखटेन मातृपितृ-- श्रेयसे सुमतिनाथबिम्बं कारितं प्र० श्रीककुदाचार्य सं. श्री ककसूरिभिः ।
बाबू पूर्णचंद्रजी सं, शि. तृ. पृष्ट ६४, लेखांक २२५३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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इस लेख से यह पाया जाता है कि बाफनों का मूल गोत्र बपनाग है और इनके प्रतिबोधक जिनदत्तसूरि के १५०० वर्षो पहिले हुए आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि हैं। इस शिलालेख में १३८६ के वर्षे में " उपके रागच्छे बम्पनागगोत्रे " ऐसा लिखा हुआ है फिर समझ में नहीं आता है कि ऐसी २ मिथ्या बातें लिख खरतरे अपने आचार्यो की खोटो महिमा क्यों करते हैं ? | यदि खरतरों के पास कोई प्रामाणिक प्रभाण हो तो जनता के सामने रक्खें अन्यथा ऐसी मायावी बातों से न तो आचार्यों की कोई तारीफ होती है और न गच्छ का गौरव बढता है बल्कि उल्टी हँसी होती है ।
जब बाफना उपकेशगच्छ प्रतिबोधित उसके रागच्छोपासक श्रावक हैं तब बाफनों से निकली हुई नाहटा, जांगड़ा, वैतालादि ५२ जातिएँ भी उपकेशगच्छ की ही श्रावक हैं। फिर जिनदत्तसूरि के ऊपर यह बोझ क्यों लादा जाता है ? | यदि कभी जिनदत्तसूरि आकर खरतरों कों पूछें कि मैंने कब बाफना जाति बनाई थो? तो खरतरों के पास क्या कोई उत्तर देने को प्रमाण है ? ( नहीं )
जैसे चोरडियों के लिये जोधपुर की अदालत में इन्साफ हुआ है वैसे ही बाफनों के लिए जैसलमेर की अदालत में न्याय हुआ था । वि. सं १८९१ में जैसलमेर के पटवों ( बाफनों ) ने श्री शत्रुंजय का संघ निकालने का निश्चय किया उस समय खरतर गच्छाचार्य महेन्द्रसूरि वहां विद्य मान थे। इस बात का पता बीकानेर में विराजमान उपकेरागच्छावार्य कक्कसूरि कों मिला। उन्होंने बाफत्रों की वंशाबलियों की बहियों देकर १९ विद्वान साधुओंों को जैसलमेर भेजा
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और वे वहां पहुंचे। संघ रवाना होने के समय वासक्षेप देने में तकरार हो गई क्योंकि खरतराचार्यने कहा कि बाफना हमारे गच्छ के हैं, वासक्षेप हम देंगे और उपकेशगच्छवालोंने कहा कि बाफना हमारे गच्छ के श्रावक हैं अतः वोसक्षेप हम लोग देंगे । झगड़ा यहांतक बढ़ गया कि दोनों गच्छवाले जैसलमेर के महाराज गजसिंहजी के दरबार तक पहुंच गए। रावल गजसिंहजीने दोनों को साबूती पूछी तो उपकेशगच्छ. वालोंने तो अपने प्रमाण की बहियों दरबोर के सामने रख दी, पर खरतरों के पास तो केवळ जबानो जमा खर्च के और कुछ था ही नहीं । वे क्या सबूत देते ? । महाराजा गजसिंहजोने इन्साफ किया कि उपकेशगच्छवाले कुलगुरु हैं और खरतरगच्छवाले क्रियागुरु हैं । वासक्षेप देने का अधिकार उपकेशगच्छबालों को है क्योंकि बाफनों के मूल प्रतिबोधक आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेशगच्छ के ही हैं। बस! फिर क्या था? खरतरे तो मुंह ताकते दूर खड़े रहे और संघ प्रस्थान का वासक्षेप उपकेशगच्छीय यतिवर्योने दिया। संघ वहां से यात्रार्थ रवाना हुआ। इस विषय का उल्लेख विस्तार से बीकानेर की बहियों में है।
शेष जातियों के लिए इतना समय तथा स्थान नहीं है कि मैं सबके लिए विस्तार से लिख सकं । तयापि संक्षेप में इतना अवश्य कह देता हूँ कि जिनदत्तसूरि के जोवन में जिन जातियों का नामोल्लेख किया है उन में एक भी जाति ऐसी नहीं है कि जो जिनदत्तसूरिने बनाई हो, क्योंकि नाहटा, राखेचा, बहुफूणा, दफ्तरी, चोपड़ा, छाजेड़, संचेती, पारख, गुलेच्छो, बलाह, पटवा, दुघड़, लुणावत, नावरिया, कांकरिया,
और श्रीश्रीमाल प्रादि जातियाँ उपकेश गच्छाचार्य प्रति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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बोधित हैं । बोथरा, बच्छावत, मुकीम धाडिवाल, फोफलिया, शेखावत आदि जातियें कारंटगच्छाचार्य प्रतियोधित हैं। कोठारी, दुधेड़िया, जातिएं वायट गच्छाचार्योने बनाई हैं। कटारीयां बड़ेरा आंचलगच्छ के और नाहर नागपुरिया तपागच्छ के, सेठिया संखेश्वरा गच्छ के तथा भंडारी संडेरागच्छ के हैं। डागा मालु नाणावल गच्छ के नौलखा, वड़िया, वांठिया, शाह, हरखावत, लोढा आदि तपागच्छ के हैं। इस विषय का विशेष खुलासा मेरी लिखी : जैन जातियों के गच्छों का इतिहास " नाम की पुस्तक में देखो। __प्यारे खरतर भाईयों ! अब वह अन्धकार और गताऽनुगति का जमाना नहीं है, जो आप मुठ मूठ बातें लिख कर भोले भाले लोगों को धोखा दे अपना अनुचित स्वार्थ सिद्ध कर सको । आज तों वीसों सदी है, मुंहसे बात निकालते ही जनता प्रमाण पूछती है। आप जिन जातियों को जिनदत्तसूरि द्वारा स्थापित होने का लिखते हो क्या उनके लिये एकाध प्रमाण भी बता सकते हो ? । मैने कोई १२ वर्ष पहिले पूर्वोक्त जाति यों के लिए ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ "जैनजाति निर्णय" नामक पुस्तक प्रकाशित करवाई थी पर उसके प्रतिवाद में असभ्य शब्दों में मुझे गालियों के सिवाय आज पर्यन्त एक भी प्रमाण आपने नहीं दिया है और अब उम्मेद भी नहीं हैक्यों कि जहां केवल जवानी जमा खर्च रहता है वहां प्रमाणों को आशा भी क्या रखी जा सकती है?
यदि किसी ग्राम में अधिक परिचय के कारण कई जातियों को खरतरगच्छ की क्रिया करते देख के ही यह ढांचा तैयार किया हो तो आपने बड़ी भारी भूल की है। क्यों कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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पूर्वोक्त जातियां कई स्थानों पर ढूंढिया और तेरहपन्थियों की क्रियाएं भी करती हैं। पर इस से यह मानने को तो आप भी तैयार न होंगे कि उन जातियों की स्थापना किसी दूढिये या तेरहपन्थी आचार्यने की है । अतएव यह बात हम बिना संकोच के कह सकते हैं कि खरतरों के किसी आचार्यने एक भी नया श्रोसवाल नहीं बनाया । आपने जो अपने उपासक बनाये हैं वे सब जैनसंघ में फूट डाल कर भगवान् महावीर के पांच कल्याणक माननेवाले थे उन्हे छः कल्याणक मनवा कर और स्त्रिये जो प्रभुपूजा करती थी ऊन से प्रभुपूजा छुडा कर अर्थात् उनके कल्याण कार्य संपादन में अन्तराय दे कर, जैसे ढूढियोंने जिन लोगोंको मूर्तिपूजा छुडा कर और तेरहपंथियोंने दया दान के शत्रु बना कर अपने श्रावक माने हैं वैसे ही आप खरतरोंने भी इन से बढ़के कुछ काम नहीं किया है । इस लिये किसी जैन को खरतरों की लिखी मिथ्या कल्पित पुस्तकों को पढ़ कर भ्रम में न पड़ना चाहिये । और अपनी २ जाति की उत्पत्ति का निर्णय कर अपने मूल प्रतिबोधक आचार्यों का उपकार और उनके गच्छ को ही अपना गच्छ समझना चाहिये ।
दीवार नंबर ५ कई खरतर भक्त यह कह उठते हैं कि कई ब्राह्मणोंने एक मृत गाय को जिनदत्तसूरि के मकान में डलवा दी । तब जिनदत्तसूरिने उस मृत गाय को ब्राह्मणों के शिवालय
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में फिंकवा दी। इस चमत्कार को देख वे ब्राह्मण लोग दादाजी के भक्त बन गए । इत्यादि -
समीक्षा - अव्वल तो इस बात के लिये ख़रतरों के पास कोई भी प्रामाणिक प्रमाण नहीं हैं तब प्रमाणशून्य ऐसी मिथ्या गप्पें हांकने में क्या फायदा हैं ? और ऐसी कल्पित बातों से जिनदत्तसूरि की तारीफ नहीं प्रत्युत हांसी होती है । वास्तव में ८४ गच्छों में एक वायट नाम का गच्छ हैं उस में कई जिनदत्तसूरि नाम के आचार्य हुए हैं । यह गायवाली घटना एक वार उन वायट गच्छाचार्यों के साथ घटी थी । खरतरोंने वायट गच्छीय जिनदत्तसूरि व जीवदेवसूरि की घटना अपने जिनदत्तसूरि के साथ लिख मारी है ।
प्रभाविक चरित्र जो प्रामाणिक आचार्य प्रभावचन्द्रसूरिने विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में बनाया है और वह मुद्रित भी हो चुका है उस में निम्नलिखित वर्णन है । पाठक इसे पढ़ सत्यासत्य का स्वयं विवेचन करलें ।
अन्यदा बटव: पाप-पटवः कटवो गिरा ॥ आलोच्य सुरभि कांचि - दंचन्मृत्युदशास्थिताम् ॥ १३१ ॥ उत्पाद्योत्पाद्य चरणान्निशायां तां भृशं कृशाम् ॥ श्रीमहावीरचैत्यान्तस्तदा प्रावेशयन् हटात् ॥ १३२ ॥ युग्मम्
गतप्राणां च तां मत्वा बहिः स्थित्वाऽतिहर्षतः ॥ ते प्राहुरत्र विज्ञेयं जैनानां वैभवं महत्
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॥ १३३ ॥
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॥ १३४ ॥
चीक्ष्य प्रातर्विनोदोऽयं श्वेताम्बरविडम्बकः ॥ इत्थञ्च कौतुकाविष्टास्तस्थुर्देवकुलादिके ब्राह्मे मुहूर्त्ते चोत्थाय यतयो यावदङ्गणे || पश्यन्ति तां मृतां चेतस्य कस्माद्विस्मयावहाम् ।। १३५ ।। निवेदिते गुरूणाञ्च चित्रेऽस्मिन्न रतिप्रदे || अचिन्त्यशक्तयस्ते च नाक्षुभ्यन् सिंहसन्निभाः ॥ १३६॥ मुनीन् मुक्तवाङ्गरक्षार्थ मठान्तः पट्टसंनिधौ ॥ अमानुषप्रचारेऽत्र ध्यानं भेजुः स्वयं शुभम् ॥ १३७ ॥ अन्तर्मुहूर्त्त मात्रेण सा धेनुः स्वयमुत्थिता || चेतना केचना चित्र हेतुश्च त्याद्वहिर्ययौ ॥ १३८ ॥ पश्यन्तस्ताञ्च गच्छन्तीं प्रवीणाः ब्राह्मणास्तदा ॥ दध्युरध्युषिता रात्रौ मृता चैत्यात्कथं निरैत् ॥ १३९ ॥ नाऽणु कारणमत्राऽस्ति, व्यसनं दृश्यते महत् ॥ अवद्धा विप्रजातिर्यद् दुर्ग्रहा वटुमण्डली एवं विमृशतां तेषां गौर्ब्रह्मभवनोन्मुखी ॥ प्रेखत्पदोदयापित्र्यस्नेहेनेव हृता ययौ यावत्तत्पूजकः प्रातर्द्वारमुद्घाटयत्यसौ ॥ उत्सुका सुरभिर्ब्रह्मभवने तावदाविशत
॥ १४० ॥
खेट्यन्तं बहिः शृङ्गयुगेनाऽमुं प्रपात्य च ॥ गर्भागारे प्रविश्याऽसौ ब्रह्ममूर्तेः पुरोऽपतत्
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॥ १४१ ॥
॥ १४२ ॥
॥ १४३ ॥
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॥ १४४ ॥
तद्ध्यानं पारयामास, जीवदेवप्रभुस्ततः ॥ पूजको झल्लरी नादान्महास्थानममेलयत् विस्मिताः ब्राह्मणाः सर्वे मतिमूढास्ततोऽवदन् ॥ तदा दध्युरयं स्वप्नः सर्वेषाञ्च मतिभ्रमः " प्रभाविक चरित्र पृष्ठ ८७
।। १४५ ।।
उपर्युक्त प्रमाण से स्पष्ट सिद्ध है कि गायकी घटना जिनदत्तसूरि के साथ नहीं पर वायट गच्छीय जिनदत्तरि के पट्टधर जीवदेवसूरि के साथ घटी थी जिस को खरतरोंने अपने जिनदत्तसूरि के साथ जोड कर दादाजी की मिथ्या महिमा बढाइ है | क्या खरतर इस विषय का कोई भी प्रमाण दे सकते हैं जैसा प्रभाविक चरित्र का प्राचीन प्रमाण दिया हैं |
हमने
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दीवार नंबर ६
कई खरतरों का यह भी कहना है कि दादाजी जिनदत्तसूरिने विजली को अपने पात्र के नीचे दबाकर रख दी, और उससे वचन लिया कि मैं खरतरगच्छवालों पर कभी नहीं पहूँगी । इत्यादि ।
समीक्षा:- -प्रथम तो इस कथन में कोई भी प्रमाण नहीं है, केवल कल्पना का कलेवर ही हैं। दूसरा यह कथन जैसा शास्त्रविरुद्ध है वैसा लोकविरूद्ध भी हैं; क्योंकि बिजली के अग्नि काया की सत्ता है वह काष्ठ के पात्र के नीचे
अन्दर
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दबाइ हुइ नहीं रह सकती । तोसरा-बिजली के अन्दर जो अग्नि है वह एकेन्दिय होने के कारण उस के वचन भी नहीं है । इस हालत में वह दादाजी को वचन कैसे दे सकी ? शायद जिनदत्तसूरिने उस बिजलो ( अग्नि ) में किसी भूत प्रवेश कर के वचन ले लिया हो तो बात दूसरो है।
खरतर लोग जिनदत्तसूरि को युगप्रधान बतलाते हैं फिर जिनदत्तसूरि के इतना पक्षपात क्यों ? जो बिजली के पास वचन केवल खरतरगच्छ के लिए ही लिया । क्या अखिल जैनों के लिए बचन लेना दादाजीने ठीक नहीं समझा था ? । पक्षपात का एक उदाहरण और भी मिलता है जो योगिनियों के पास सात वरदान लिये उसमें एक वह भो वरदान है कि खरतर श्रावक सिन्ध देश में जायँगे तो ये निर्धन नहीं होंगे । क्या युगप्रधान का ये ही लक्षण हुआ करता हैं ? । अपने गच्छ के अलावा दूसरे जनोंपर विजली गिरे या वे निर्धन हों इसकी युगप्रधानों को परवाह ही नहीं। वास्तव में जैसे गायवाली घटना यतियोंने दादाजी की महिमा बढ़ाने को गढलो है, वैसे ही बिजली की कल्पित कथा भी गढ़ डाली है । यदि ऐसा न होता तो कुच्छ वर्षों पूर्व जब खरतरगच्छीय कृपाचन्दजी मालवा में रतलाम के पास एक ग्राम में प्रतिक्रमण कर रहे थे उस समय जोर से विजली गिरी जिस से २-३ श्रावकों को बड़ा भारी नुकशान हुआ तो क्या कृपाचन्द्रजी खरतर गच्छ के नहीं थे ? या बिजली अपना वचन भूल गई थी । खरतरों ! ऐसी झूठ मूठ बातों से तुम अपने आचार्यों की शोभा बढ़ानी चाहते हो, पर याद रक्खो तुम्हारी इस धांधली से ऊल्टी हंसी ही होती है। क्या दादाजी के किसी जीवन में ऐसी असत्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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बातें लिखी हैं ? यदि हिम्मत हो तो भला एकाद पुष्ठ प्रमाण दे अपने कलंक का परिमार्जन करो । इत्यलम्
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दीवार नंबर ७
कइ खरतर लोग कहा करते है कि दादा जिनदत्तसूरिने ५२ वीर और ६४ योगिनीयों को वश में करली थी । इत्यादि ।
समीक्षा: - इस कथन में क्या प्रमाण हैं? कुछ नहीं । भले जिनदत्तसुरिने ५२ वीर और ६४ योगिनियों को वश में कर शासन का क्या कार्य करवाया ? जिस समय मुसलमान लोग जैन मन्दिर - मूर्तियां तोड़ रहे थे उस समय वे ५२ वीर और ६४ योगिनिएं किस गुफा में गुप्त रहकर दादाजी की सेवा कर रहे थे ? ।
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शायद जिनदत्तसूरि और जिनशेखरसूरि इन दोनों गुरु भाईयों में जब आचार्य पदवी के लिए बड़ा भारी क्लेश चल रहा था तब जिनदत्तसूरि के पक्ष में ५२ वीर - लडाकु पुरुष और ६४ औरतों लड़ती होगी ! बाद में पीछे के लोगोंने उन ५२ लड़वईयों को वीर और ६४ औरतों को योगिनीएं लिख दी हों तो यह बात ठीक संभव हो सकती है । यदि ऐसा न हो तो खरतरों का कर्त्तव्य है कि वे जिनदत्तसूरि के समसामायिक किसी प्रामाणिक ग्रंथ का प्रमाण जनता के सामने रख, अपनी बात को सिद्ध कर बतलावे | याद रहे यह वीसवों शताब्दी है । असभ्य शब्दों
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में गालीगलौज करने से या आधुनिक यतियों के लिखेपोथों का प्रमाण से अब काम नहीं चलेगा ।
दीवार नंबर ८ कई खरतर लोग जिनदत्तमरि के जीवन में यह भी लिखते है कि योगिनियोंने दादाजी को सात वरदान दिए, जिनमें एक यह वरदान भी है कि खरतरगच्छ में यदि कोइ कुमारी कन्या दीक्षा लेगी तो वह ऋतुधर्म में नहीं आएगी। इत्यादि ।
समीक्षाः-गच्छराग और गुरुभक्ति इसीका ही तो नाम है फिर चाहे वह बात शास्त्र और कुदरत से खिलाफ हो क्यों न हो । पर अपने गच्छ या आचार्यों की महिमा बढाने के लिए वे ऐसो भद्दी बातें कहने में तनिक भी विचार महों करते हैं । भला इस खरतरगच्छ में बहुत सी कुमारी कन्याएं दीक्षा ली थी और वर्तमान में भी विद्यमान हैं, किन्तु ये सबकी सब यथाकाल ऋतुधर्म को प्राप्त होती हैं । इस हालत में खरतरों को समझना चाहिये कि या तो वे कुमारी कन्याएं दीक्षा लेने के उपरान्त कुमारी नहीं रह सकी या योगिनियों का वचन असत्य है । खरतरों को जरा सोचना चाहिये कि ऐसी भही बातों से गच्छ व दादाजी की तारीफ होती हैं या हंसी ? क्योंकि इस प्रत्यक्ष प्रमाण कों कोई भी इन्कार नही कर सकता हैं ।
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दीवार नंबर ९ आधुनिक कइ खरतर लोग प्रतिक्रमण के समय दादाजी का काउस्सग्ग करते हैं तब कहते हैं कि "चौरासी गच्छ शंगारहार" और आधुनिक लोग जिनदत्तसूरि के जीवन में बताते हैं कि ८४ गच्छ में ऐसा कोई भी प्रभाविक आचार्य नहीं हुआ हैं। इस से जिनदत्तमूरि को ८४ गच्छवाले ही मानते हैं । इत्यादि ।
समीक्षा:चौरासी गच्छों को तो रहने दीजिये पर जिनवल्लभसूरि को संतान अर्थात् जिनशेखरसूरि के पक्षवाले भी जिनदत्तसूरि को प्रभाविक नहीं मानते थे । यही कारण है कि जिनदत्तसूरि से खिलाफ होकर उन्होंने अपना रुद्रपालो नामक अलग गच्छ निकाला । जब एक गुरुके शिष्यों की भी यह वात है तो अन्य गच्छों के लिए तो बात ही कहां रही?।
चौरासी गच्छों में जिनदत्तसूरि के सदृश कोइ भी आचार्य नहीं हुआ, शायद इसका कारण यह हो कि ८४ गच्छो में किसीने स्त्रीपूजा का निषेध नही किया परन्तु एक जिनदत्तसूरिने हो किया । और भी भगवान् महावीर के छ: कल्याणक, श्रावक को तीन वार करेमि भंते, सामायिक उच्चराना । पहिले सामायिक और बाद में इरियावाही आदि जिनशास्त्र के विरुद्ध प्ररूपणा किसी अन्याचार्योने नहीं को जैसी कि जिनदत्ससूरिने की थी।
चौरासी गच्छोंवाले जिनदत्तसूरिको प्रभाविक नहीं पर उत्सूत्रप्ररूपक निलव जरूर मानते थे। और उन्होंने स्त्रीपूजा
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का निषेध कर उत्सूत्र की प्ररूपणा भी की थी । क्या खरतर इस बात को सिद्ध करने को तैयार है कि जिनदत्तसूरिने स्त्रीपूजा निषेध की वह शास्त्राऽनुसार की थी और इस बात को ८४ गच्छवाले मान कर जिनदत्तसूरि को प्रभाविक मानते थे ? । अन्यथा यही कहना पड़ता है कि खरतरोंने केवल हठधर्मी से " मान या न मान मैं तेरा महमान" वाला काम ही किया है । और इस प्रकार जबरन मेहनान बनने का नतीजा यह हुआ कि एक शहर में पहले तो सम. झदार खरतर दादाजी का काउस्सग करते समय " खरतर गच्छशंगार " कहते थे पर आधुनिक "चोरासीगच्छ शंगार" कहने लग गए । जिसका यह नतोजा हुआ कि खरतरगच्छवाला एक समय तपागच्छ के साथ में प्रतिक्रमण करते हुए खरतरोंने " चौरासी गच्छ शंगार हार " कहा इतने में एक भाई बोल उठा कि दादाजी हमारे गच्छ के शृंगारहार नहीं हैं आप ८३ गच्छशंगार बोले ! अब इसमें मेहमानों की क्या इजत रही । यदि रुद्रपाली गच्छ की मौजूदगी में यह कोउस्सग्ग किया जाता तो कुछ और ही बनाव बनता? । खैर ! खरतरगच्छवालों को चाहिये कि वे अपने प्राचार्य को चाहे जिस रूप में मानें, पर शेष गच्छवालों के शंगारहार बनाना मानो अपना और अपने आचार्य का अपमान कराना है । यदि खरतरों के पास ८४ गच्छवालों का कोई प्रमाण हो कि जिनदत्तसूरि को वे अपने शंगारहार मानते हैं, तो उसे शीघ्र जनता के सामने रखना चाहिये ।
यदि कोई किसी के गुणों पर मुग्ध हो उस गुणीजन को पूज्य दृष्टि से मानता भा हो तो उसकी संतान को इस बात का आग्रह करने से क्या फायदा है ? जैसे खरतरShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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गच्छीय जिनप्रभसूरिने एक देवी द्वारा महाविदेह में विराजमान श्री सीमन्धर तीर्थङ्कर से निर्णय कराया कि भारत में किस गच्छ को उदय होगा ? और प्रभाविक प्राचार्य कौन है ? इस प्रश्न का उत्तर तीर्थङ्कर श्रीसीमन्धर के मुँह से सुन कर देवीने जिनप्रभसूरि के पास आकर कहा कि भारत में तपागच्छीय सोमतिलकसूरि महाप्रभाविक हैं उनके गच्छ का उदय होगा । इस पर जिनप्रभसूरि अपने बनाये सब ग्रंथ ले कर सोमतिलकसूरि के पास आए और उन्हे वन्दन कर वे ग्रंथ उनको अर्पण कर दिये । इस बात का प्रमाण काव्यमाला के सप्तम गुच्छक में मुद्रित हो चुका है । दादाजी के समय कक्कसूरि नामक प्राचार्य को सब गच्छोंवाले राजगुरू के नाम से मान कर पूजा करते थे, कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य उनके चरणों में शीश झुकाता था पर उनकी संतानने कदि ऐसे शब्दोच्चारण नहीं किया कि हमारे आचार्य ऐसे हुए हैं कारण केवल कहने से ही उनका महत्व नहीं बढ़ता हैं पर काम करनेवालों को सब लोग पूज्यदृष्टि से देखते हैं ।
इतना होने पर भी तपागच्छीय किसी व्यक्तिने यह नहीं कहा कि इस समय भारत में तपागच्छ का ही उदय है । और न उनको कहने की आवश्यकता ही है, क्यों कि तपागच्छ के आधुनिक प्रभाव को जनता स्वयं जानती है । कहा है कि:
" नहि कस्तूरि का गन्ध शपथेन विभाव्य । "
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अर्थात- कस्तूरी की सुगन्ध सौगन्ध से सिद्ध नहीं होती, वह तो स्वयं जाहिर होती है। जिनदशसूर के लिये केवल
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आधुनिक खरतरे. ही यह कहते हैं कि ८४ गच्छों में जिनदत्तसूरि जैसा कोई प्रभाविक व्यक्ति हुआ ही नहीं, पर शेष गच्छवाले तो इन का कभी जिक्र ही नहीं करते हैं। जिनदत्तसूरि के समकालिक आचार्य हेमचन्द्रसूरिने परमाहत् कुमारपाल को जैन बना कर जैनधर्म की महान् प्रभावना की तब जिनदत्तसूरिने शासन में भयङ्कर विरोध उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं किया। जिस का कटु फल आजतक जैनजगत् चाख रहा है । इस प्रकार प्रत्येक गच्छ में प्रभाविक आचार्य हुए है।
खरतरों ! जरा समय को पहिचानो, सोच समझ कर बातें करो, तथा विवेक से लिखो, ताकि आज की जनता जरा आप की भी कदर करे; अन्यथा याद रक्खोः
"विवेकम्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः "
दीवार नंबर १० कई खरतर लोग लिखते हैं कि दादाजी जिनदत्तसूरिने सिन्धदेश में जा कर पांच पीरों को साधे थे इत्यादि ।
समीक्षा-भगवान् महावीर के पश्चात् और जिनदत्तसूरि के पूर्व हजारों जैनाचार्य हो गुजरे, पर मुसलमान जैसे निर्दय पीरों की किसीने श्राराधना नहीं की, और मोक्ष मार्ग की आराधना करनेवाले मुमुक्षुओं को ऐसे निर्दय पीरों को साधने की कोई जरूरत भी नहीं थी, फिर जिनदत्तसूरि को हो ऐसी क्या गरज पड़ी थी कि वे पीरों की आराधना की थो ? और यदि की भी थी तो फिर वह किस विधि
Ai.
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विधान से ? जैन विधि से या पोरों की विधि से ? । उस साधना में बलि बाकुल किस पदार्थ का किस विधि से दिया ? | भला, पांच पीरों को साध कर जिनदत्तसूरिने क्या किया ? | क्या किसी मुसलमान को भारत पर आक्रमण करते को रोकाया मन्दिर - मूर्त्तियें तोडते को वहां से भगाया ? | मेरे ख्याल से जिनदत्तसूरिने इन में से तो कुछ नहीं किया । हाँ, शायद उस समय जिनदत्तसूरि और जिनशेखरसूरि इन दोनों गुरुभाईयों में पारस्परिक द्वन्द्वता चल रही थी इस कारण किसी जैन या हिन्दू देवताने तो जिनदत्तसूरि की सहायता न को हो आर इस से उन यवन पीरों की साधना की हो तो बात दूसरी है; पर खरतरों को चाहिये कि वे दो बातों के प्रमाण बतलावें। एक तो यह बात किस प्राचीन शास्त्र में लिखी है कि जिनदत्तसूरिने पांच पीरों की साधना की, और दूसरा उन पांच पीरों से उन्होंने क्या अभीष्ट सिद्धि की थी ? यदि जिनशेखरसूरि के लिए ही पीरों कों साधन किया हो तो उस समय जिनशेखरसूरि
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का समुदाय विद्यमान ही था ? | पोरोंद्वारा उनकों क्या
नसयत दी ?
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दीवार नंबर ११
कई खरतर कहते हैं कि जिनदत्तसूरिने " स्त्रियें को जिनपूजा करनेका निषेध किया है " इसलिए खरतरगच्छ में आजतक स्त्रियाँ पूजा नहीं करती हैं । यदि कोइ तीर्थयात्रा वगैरह में अन्य गच्छीयी की देखादेखी पूजा करती भी हैं वे दादाजी की आज्ञा का भंग करती हैं । इत्यादि,
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समीक्षा-जिनदत्तसूरि के पूर्व तीर्थङ्कर, गणधर और सैंकडों आचार्य हुए पर किसीने स्त्रीपूजा का निषेध नहीं किया । इतना ही क्यों पर जिनदत्तसूरि के गुरु जिनवल्लभ सूरिने भी कई तरह की स्थापना उत्थापना की, परन्तु स्त्रियों को प्रभुपूजा करने से तो उन्होंने भी निषेध नहीं किया । फिर समझ में नहीं आता है कि जिनदत्तसूरि को हो यह स्वप्न क्यों आया कि जो उन्होंने स्त्रीपूजा निषेध कर उत्सूत्र की प्ररूपणा की। शायद किसी औरत के साथ दादाजी का झगड़ा होगया हो और दादाजीने आवेश में आकर कह दिया हो कि जाओ तुमको प्रभुपूजा करना नहीं कल्पता हैं। बाद लकीर के फकीरोंने इस बात को प्राग्रह कर पकड़ ली हो जैसे कि कोई २ हटधर्मो व्यक्ति खरपुच्छ पकड़ने पर नहीं छोड़ता है तो ऐसा संभव हो सकता है। ___यदि ऐसा नहीं हुआ हो तो शास्त्रों में स्नापूजा के खुल्लमखुल्ला पाठ होने पर भी फिर यह अर्द्ध ढूंढियों की प्ररूपणा दादाजी कभी नहीं करते और शायद दादाजीने किसी द्वेष के कारण यह कर भी दिया तो, पिछले लोग सदा के लिए इसको पकड़ नहीं रखते । अब हम कतिपय शास्त्रों के प्रमाण यहाँ उद्धृत करते हैं।
१-श्री ज्ञातासूत्र में महासती द्रौपदीने जिनपूजा की है। २-उत्तराध्ययनसूत्र में महासती प्रभावतीने प्रभुपूजा
की है। ३-श्री भगवतीसूत्र में मृगावती जयंतिने जिनपूजा की है। ४-श्रीपाल चरित्र में मदनमञ्जूषा श्रादि स्त्रियोंने प्रभु
पूजा और अंगीरचना की है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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५-राजा श्रेणिक को रांनी चेलना हमेशां पूजा करती थी।
इत्यादि स्त्रियों की पूजा के प्रमाण लिखे जायें तो एक बृहद् ग्रंथ बन सकता है, पर इस बात के लिए प्रमाणों की आवश्यकता ही क्या है ? क्योंकि जहां श्रावकों को पूजा का अधिकार है वहां श्राविकाएँ पूजा करे इसमें शंका हो ही नहीं सकती है फिर समझ है नहीं पाता है कि कहनेवाले युगप्रधान ऐसी उत्सूत्र प्ररूपणा कैसे कर सके होंगे? शायद यह कहा जाता हो कि कई विवेकशून्य औरतें प्रभुपूजा करते समय कभा २ आशातना कर डालती हैं इस लिये स्त्रीपूजा का निषेध किया है । पर विश्वास होता है कि यह कथन दादाजी का तो नहीं होगा क्यों कि एकाद व्यक्ति श्राशातना कर भी डाले तो सब समाज के लिए इस का निषेध नहीं हो सकता है। और यदि ऐसा हो सकता है तो फिर विवेकशून्य मनुष्यों से कभी आशातना होने पर मनुष्य जाति के लिये भी प्रभुपूजा का निषेध क्यों नहीं किया । अथवा यह हमारा तकदीर ही अच्छा था कि जिनदत्तसूरि एक स्त्रीपूजा का ही निषेध कर अर्द्ध ढूंढक बन गये । यदि किसी पुरुष को भी कभी आशातना करने देख लेते तो वे पुरुषों को भी प्रभुपूजा का निषेध कर आधुनिक ढूंढियों से ४०० वर्ष पूर्व ही ढूंढिये बन जाते । फिर यह भी अच्छा हुश्रा कि उस समय बारह करोड़ जैनों में से केवल विवेकशून्य सवालाख जैन ही जिनदत्तसूरि के नूतन मत में सामिल हुए। खरतरों को यह सोचना चाहिये कि इस उत्सूत्र की प्ररूपणा कर आप के आचार्योने ढूंढिया तेरहपंथियों से कम काम नहीं किया है। क्या आप अपनी मिथ्या प्ररूपणा को किन्हीं शास्त्रीय प्रमाणों से सिद्ध कर सकते हो ?
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दीवार नंबर १२ कई खरतर लोग यह भी कह देते हैं कि जिनदत्तसूरिने अमावस की पूर्णिमा कर बतलाई थी ।
समीक्षा -यदि ऐसा हुआ भी हो तो इस में जिनदत्तसूरि की कौनसी अधिकता हुई ? कारण यह कार्य तो आज इन्द्रजालवाले भी कर के बता सकते हैं। क्या ऐसे इन्द्रजाल से आत्म-कल्याण हो सकता है ? शास्त्रकारोंने तो ऐसे कौतुक करनेवालों को जिनाज्ञा का विराधक बतलाया हैं | देखो ! " निशीथसूत्र " जिस में चातुर्मासिक प्रायश्चित | बतलाया है ।
फिर भी हम खरतरों को पूछते हैं कि इस बात के लिए आप के पास क्या प्रमाण है कि जिनदत्तसूरिने अमावस की पुनम कर दिखाई थी ? । खरतरों के बनाए गणधर सार्द्धशतक की बृहद्वृत्ति में जिनदत्तसूरि का संपूर्ण जीवन लिखा है । जिस में छोटी से छोटो बातों का उल्लेख है पर इस बात की गंध तक भी नहीं है कि दादाजीने अमावस की पूनम कर बतलाई थो । इस हालत में खरतरलोग जैनाचार्यों को ऐन्द्रजालिक बनाके उनकी हंसी करवाने में क्या फायदा समझ बैठे है ? | यह समझ में नहीं आता है कि यदि खरतरलोगों के पास कोइ प्राचीन प्रमाण हैं तो वे उन्हें प्रसिद्ध करा के आचार्यों को ऐन्द्रजालिक होना साबित क्यो नहीं करते ? |
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४८ दीवार नंबर १३ खरतरगच्छ पट्टावलि में लिखा हैं कि आचार्य जिनचंद्रसूरिने दिल्ली के बादशाह को बहुत चमत्कार बतलाना कर अपना भक्त बनाया बाद वि० स० १२२३ में आप का देहान्त भी दिल्ली में ही हुआ ।
समीक्षा-कोई भी जैनोचार्य इस प्रकार बादशाह वगैरह को अपना भक्त बनावे ईसमें केवल खरतरों को ही नहीं पर समग्र जैन समाज को खुशी मनाने की बात हैं पर वह बात तो सत्य होनी चाहिये न । हमारे खरतर भाइयों कों तो इस बात का तनक भी ज्ञान नहीं हैं कि देहली पर बादशाह का राज कब हुआ और जिनचन्द्रमूरि कब हुए थे जरा इतिहास के पृष्ठ उथल कर देखिये-विक्रम सं. १२४६ तक तो देहली पर हिन्दूसम्राट पृथ्वीराज चौहान का राज था बाद देहली का राज बादशाह के अधिकार में गया हैं तब जिनचन्द्रसूरि का देहान्त १२२३ में ही हो गया था फिर समझ में नहीं पाता हैं कि जिनचन्द्रसूरि दिल्ली के बादशाह को कैसे चमत्कार बतला कर अपना भक्त बनाया होगा ? शायद् जिनचन्द्रसूरि कालकर भूत, पीर या देवता हो कर बादशाह को चमत्कार बतला कर अपना भक्त बनायो हो तो यह बात ही एक दूसरी हैं। पर खरतर लोग इस प्रकार को अनगल बाते कर अपने आचार्यों की क्यों हाँसी करवाते हैं ऐसे लोगों को भक्त कहना चाहीये या मश्करा?
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दीवार नंबर १४ कई खरतर लोग कहते हैं कि बादशाह अकबर की राज-सभा में खरतराचार्य जिनचन्द्रसूरिने मुल्लाओंकी टोपी आकाश में उडा दी थी और बाद में ओघा से पीट पीट कर उस टोपी को उतारी । इत्यादि
समीक्षा यह भी उसी सिग्गे की और बे शिर पाँव की गप्प है कि जो उपर लिखी उक्त गप्पों से घनिष्ट सम्बन्ध रखती है।
वि. सं. १६३९ में बादशाह अकबर को जगद्गुरु आचार्य श्री विजयहीरसूरिने प्रतिबोध कर जैनधर्म का प्रेमी बनाया । बाद विजयहोरसूरि के शिष्य शांतिचन्द्र, भानुचंद्र आदि बादशाह अकबर को उपदेश देते रहे। बादशाहने जैन धर्म को ठीक समझ कर प्राचार्य विजयहीरसूरि के उपदेश से एक वर्ष में छ मास तक अहिंसा का तथा शत्रुञ्जय वगैरह तीर्थो के बारे में फरमान लिख दिया इस से तपागच्छ की बहुत प्रभावना हुई । उस समय बीकानेर का कर्मचन्द्र बछावत बादशाह की सेवा में था उसने सोचा कि यह यशः केवल तपागच्छवालोंने हो कमा लिया तो खरतरगच्छाचार्यों को बुला कर कुछ हिस्सा इन से खरतरगच्छवालों को क्यों न दिरवाया जाय ? तब वि.सं. १६४८ में खरतराचार्य जिनचन्द्रसूरि को बुला कर बादशाह की भेंट करवाई । पर इस में खरतरगच्छवालों को अभिमान कर के फूल जाने की कोई बात नहीं हैं, क्यों कि वि. सं. १६३६ से १६४८ तक
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तपागच्छवालोंनेही बादशाह का मन जैनधर्म की ओर आकर्षित किया । बाद में जिनचन्द्रसूरि और बादशाह की भेट हुई तथा जो मान सन्मान मिला था वह तपागच्छीय आचार्यो की कृपा का ही फल था । इस से खरतरों को तो ऊल्टा तपागच्छवालों का उपकार समझना चाहिए ।
बादशाह अकबर स्वयं मुसलमान था और मुल्ला था बादशाह का गुरु ? क्या जिनचन्द्रसूरि या दूसरों की यह शक्ति थी कि वे सभा में उनका अपमान कर सकें ? । बादशाह अकबर को ३०० वर्ष हुए हैं और उस समय का इतिहास ज्यों का त्यों आज उपस्थित है। क्या खरतर लोग उसमें इस बातकी गंध भी बता सकते हैं कि अमुक समय ब जगह यह किस्सा बना था। जब यह बात ही कल्पित है तो ऐसे दृश्य का चित्र बनाकर भद्रिक जीवों को भ्रम में डाल अपने प्राचार्य की झूठी प्रशंसा करने की क्या कीमत हो सकती है ? । हां, जरा देरके लिए दुनियां उसे देख भले ही ले, पर समझेगी क्या यही न कि ? चित्र बनाने और बनवानेवाले दोनों अक्ल के दुश्मन हैं।
हाल ही में श्रीमान् अगरचन्दजी नाहटा बीकानेरवालोंने जिनचन्द्रसूरि नामक पुस्तक लिखी है, उसमें जिनचन्द्रसूरि
और बादशाह अकबर का सब हाल दिया है, पर जिनचंद्रसूरिने मुल्ला की टोपी उडाई इस बात का जिक्र तक भी नहीं किया है । नाहटाजी इतिहास के अच्छे विद्वान् हैं । यदि ऐसी टोपीवाली बात सत्य होती तो वे अपनी पुस्तक में लिखने से कभी नहीं चुकते । यद्यपि नाहटाजी उपकेशगच्छोय श्रावक हैं फिर भी आप को खरतरगच्छ का अत्यधिक मोह है । इससे आपने अपनी "जिनचन्द्रसूरि" नामक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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पुस्तक में बादशाह अकबर और जिनचंद्रसूरि का एक कल्पित चित्र दिया है उसमें आकाश के अन्दर टोपी का चिन्ह जरूर है; परन्तु यह शायद नाहटाजीने खरतरों को खुश रखने की गर्ज से दिया है, अन्यथा वे इसका उल्लेख जरूर करते ? | किन्तु इतिहास से इस टोपीवाली घटना को असत्य जानकर ही आपने उसका कहो नामवर्णन भी नहीं किया है, क्यों कि विद्वान् तो सदा मिथ्या लेखों से डरते रहते हैं । उन्हें भय रहता है कि झूठी बात के लिये पूछने पर प्रमाण क्या देंगे ? पर जिन्होंने अपनी अक्ल का दिवाला निकाल दिया है वे फिर झूठ सत्य की परवाह क्यों करते ।
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जिस प्रकार जिनचन्द्रसूरि के साथ मुला के टोपी की घटना कल्पित है वैसे हो बकरी के भेद बतलाने की घटना भी भ्रममात्र है, क्यों कि न तो यह घटना घटी थी और न इसके लिए कोई प्रमाण ही है । यदि खरतरों के पास इन दोनों घटनाओं के लिये कुछ भी प्रमाण हों तो अब भी प्रगट करें । वरना इस वीसवीं शताब्दी में ऐसे कल्पित कलेवरों की कौड़ी भी कीमत नहीं है बल्कि हांसी का ही कारण हैं ।
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दीवार नंबर १५
(१५) कई लोग अपनी अनभिज्ञता एवं आन्तरिक द्वेषभावना के कारण यह भी कह उठते हैं कि सं० २२२ में न तो ओसियां में ओसवाल हुए हैं और न रत्नप्रभसूरिने ओसवाल बनाये हैं । प्रत्युत ओसवाल तो खरतरगच्छाचार्योंने ही बनाये हैं । इस लिए तमाम ओसवालों को
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खरतरगच्छाचार्यों का ही उपकार समझना एवं मानना चाहिए ।
समीक्षा अव्वल तो यह बात कहां लिखी है ? किसने कही है ? और आपने कहां सुनी है ? क्यों कि आज पर्यन्त किसी विद्वान्ने यह न तो किसी ग्रंथ में लिखी है
और न कहा भी है कि २२२ संवत् में रत्नप्रभसूरिने ओसियां में ओसवाल बनाये थे। यदि किन्हीं भाट भोजकोंने कह भी दिया हो तो आपने विना प्रमाण उस पर कैसे विश्वास कर लिया ? यदि किसी द्वेष के वशीभूत हो आपने इस कल्पित बात को सच मानली है तो उन भाट भोजकों के वचनों से अधिक कीमत आप के कहने की भी नहीं है। खरतरो ! लम्बी चौड़ी हांक के विचारे भद्रिक लोगों को प्रम में डालने. के पहिले थोडा इतिहास का अभ्यास करिये-देखिये !
(१) आचार्य रत्नप्रभसरि प्रभु पार्श्वनाथ के कट्टे पट्टधर भगवान् महावोर के निर्वाण के बाद पहिली शताब्दी में हुए है।
(२) जिसे आप ओसियां नगरी कह रहे हैं पूर्व जमाना में इस का नाम उपकेशपुर था ।
(३) जिन्हे आप ओसवाल कह रहे हैं इन का प्राचीन काल में उपकेशवंश नाम था ।
(४) उपकेशपुर में क्षत्रिय आदि राजपुत्रों को जैन बनाने का समय विक्रम पूर्व ४०० वर्ष अर्थात् वीरात् ७० वर्ष का समय था ।
(५) उपकेशपुर में नूतन जैन बनानेवाले वे ही रत्नप्रः भसूरि हैं जो प्रभु पार्श्वनाथ के छठे पट्टधर भगवान् महावीर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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के पश्चात् ७० वें वर्ष हुए और उन्होंने उन क्षत्रियादि नूतन जैनों का न तो ओसवाल नाम संस्करण किया था और न वे १५०० वर्ष ओसवाल ही कहलाये थे। हां, वे लोग कारण पाकर उपकेशपुर को त्याग कर अन्य स्थानों में जा बसने के कारण उपकेशी एवं उपकेशवंशी जरूर कहलाए थे। बाद विक्रम को दशवीं ग्यारहवीं शताब्दी में उपकेशपुर का अपभ्रंश ओसियां हुआ । तब से उपकेशवंशी लोग ओसवालों के नाम से पुकारे जाने लगे । यही कारण है कि श्रोसवालों की जितनी जातिएं हैं और उन्होंने जो मन्दिर मूत्तियों को प्रतिष्ठा करवाने के शिलालेख लिखोये हैं उन सब में प्रायः प्रत्येक जाति के आदि में उएश, उकेश और उपकेश वंश का प्रयोग हुआ है। और ऐसे हजारों शिलालेख आज भी विद्यमान हैं । जरा पक्षपात का चश्मा आंखों से नीचे उतार शान्त चित्त से निम्न लिखित शिलालेखों को देखियेः
-: मूर्तियों पर के शिलालेख :संग्रहकर्ता-मुनि जिनविजयजी-प्राचीन जैनशिलालेखसंग्रह भा.२ लेखांक वंशारगोत्र-जातियों लेखांक | वंश और गौत्र जातियों
उपकेशवंशे गणधरगोत्रे ।। २५९ | उपकेशवंशे दरडागोत्रे ३८५ उपकेश ज्ञातिका करेचगोत्रे २६० उपकेशवंशे प्रामेचागोत्रे
उपकेशवंशे कहाइगोत्रे | उ० गुगलेवागोत्रे ४१५ उपकेशज्ञाति गदइयागोत्रे | ३८८ | उ० चंद लियागोत्रे ३९८ । उपकेशज्ञाति श्रीश्रीमाल ३९१ उ० भोगरगोत्रे
चंडालियागोत्रे | ३६६ | उ० रायभंडारीगोत्रे ४१३ | उपकेशज्ञाति लोढागोत्रे । २९५ उपकेशवंशीय वृद्धसजनिया
३८५
३९९
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-: मूर्तियों पर के शिलालेख :
संग्रहकर्ता-श्रीमान् बावू पूर्णचन्द्रजीनाहर जैनलेखसंग्रह भा.१-२-३
लेखांक | वंश और गोत्र-जातियों लेखांक वंश और गोत्र-जातियां
|
५८९
उपकेशवंशे जाणचागोत्रे । उकेशवंशे गांधीगोने उपकेशवंश नाहरगोत्रे
उकेशवंशे गोखरूगोत्रे उपकेशज्ञाति भादड़ागोत्रे उपकेशवंशे कांकरीयागोत्रे उपकेशवंशे लुणियागोत्रे उपकेशज्ञाति आदित्यनागउपकेशवंशे बारड़ागोत्रे गोत्रे चोरडियाशाखायां उपकेशवंशे सेठियागोत्रे उपकेशज्ञाति चोपडागोत्रे उपकेशवंशे संखवालगोत्रे उपकेशज्ञाति भंडारीगोत्रे
उपकेशवंशे ढोकागोत्रे डेढियाग्रामे श्रीउएसवंशे ५० उम्केशज्ञातौआदित्यनागगोत्र ६१० | उएशवंशे कुर्कटगोत्रे
| उपकेशज्ञाति प्राचगोत्रे ५१ | उपकेशज्ञातौ बंबगोत्रे | उपकेशवंशे मिठडियागोरे | उ०बलहगोत्रे रांकाशाखायां| ६६४ | श्री श्रीवंशे श्रीदेवा*
१०१२ | उ० ज्ञातिविद्याधरगोत्रे
६१९
* इस ज्ञाति का शिलालख पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर वीरात् ८४ वर्ष का हाल कि शोधखोज में मिला हैं । वह मूर्ति कलकत्ता के अजायब घर में सुरक्षित हैं।
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१०८
| उपकेशवंशे भोरेगोत्रे | १२९२ । उपकेशज्ञातिय आर्यागोत्रे उकेशवंशे बरड़ागोत्रे
लुणाउतशाखायां । | उपकेशज्ञातौ वृद्धसबनिया | १३०३ उकेशवंशे सुराणागोत्रे ४०० उपकेशगच्छे तातेहडगोत्रे | १३३४ उपकेवंशे मालूगोत्रे ४३० उपकेशवंश नाहटागोत्रे | १३३५ | उपकेशवंशे दोसीगोत्रे
उकेशवंश जांगडागोत्रे । १०२५ उएश ज्ञा० कोठारीगोत्रे ४८८ उकेशवंशे श्रेष्ठगोत्रे
उ० ज्ञा. गुदचागोत्रे १२७८ उकेशज्ञा० गहलाड़ागोने
उपकेशज्ञ ति डांगरेचा. १२८० | उपकेशज्ञातौ दूगड़गोत्रे
गोत्रे । १२८५
| उएसवंशे चंडालियागोत्रे १२१० उ० सिसोदियागोत्रे १२८७ | उपकेशवंशे कटारियागोत्रे ५ । उपकेशज्ञाति साधुशाखायां
४८.
११०७
लेखांक वंश और गोत्र-जातियां लेखांक वंश और गोत्र-जातियां
१२५६ | उपकेशज्ञातौ श्रेष्ठिगोत्रे १४१३ | उकेसबंसे भागसाली गोत्रे ११७६
उ० ज्ञा. श्रेष्ठिगोत्रे वैद्य- १४३५ । उएसवंसे सुचिन्ती गोत्रे
शाखायां । १३८४ उ. वंशे भूरिगोत्रे (भटेवरा) १४९४ उपकेश सुचंति १३५३ | उपकेशज्ञातौ बोडियागोत्रे : १५३१ उ०ज्ञातौ बलहागोत्ररांकाशा. १३८६ | उ. ज्ञा. फुलपगरगोत्रे १६२१ | उपकेशज्ञातौ सोनीगोत्रे १३८९ | उपकेशज्ञाति बाफणागोत्रे ।
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__ इनके अलावा आचार्य बुद्धिसागरसूरि सम्पादित धातु प्रतिमा लेखसंग्रह में भी इस प्रकार सेंकडो शिलालेख है।
इत्यादि सैकड़ों नहीं पर हजारों शिलालेख मिल सकते हैं, पर यहाँपर तो यह नमूना मात्र दिया गया है ।
इन शिलालेखों से यह सिद्ध होता है कि जिस ज्ञाति को आज ओसवाल जाति के नाम से पुकारते हैं उसका मूल नाम ओसवाल नहीं पर उएश, उकेश और उपकेश. वंश था । इसका कारण पूर्व में बता दिया है कि उएस-उकेश
और उपकेशपुर में इस वंश की स्थापना हुइ । बाद देश-विदेश में जाकर रहने से नगर के नाम परसे जाति का नाम प्रसिद्धि में आया । जैसे अन्य जातियों के नाम भो नगर के नाम पर से पड़े वे जातिएँ आज भी नगर के नाम से पहिचानी जाती हैं । जैसे:-महेश्वर नगर से महेसरी, खंडवासे खंडेल. वाल, मेड़ता से मेड़तवाल, मंडोर से मंडोवरा, कोरंटसे कोरंटिया, पाली से पल्लिवाल, आगरा से अग्रवाल, जालोर से जालोरी, नागोर से नागोरी, साचोर से साचोरा, चित्तोड़ से चित्तोड़ा, पाटण से पटणी इत्यादि ग्रामों परसे ज्ञातियों का नाम पड़ जाता है। इसी माफिक उएश, उकेश; उपकेश जाति का नाम पड़ा है। इससे यह सिद्ध होता है कि आज जिसको श्रोसियाँ नगरी कहते हैं उसका मूल नाम आसियाँ नहीं पर उएसपुर था और आज जिनको ओसवाल कहते हैं उनका मूल नाम उएस, उकेश और उकेशवंश ही था ।
उपकेशवंश का जैसे उपकेशपुर से सम्बन्ध हैं वैसा ही उपकेशगच्छ से हैं क्यों कि उपकेशपुर में नये जैन बनाने के बाद रत्नप्रभसूरि या श्राप को सन्तान उपकेशपुर या उसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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आसपास विहार करते रहै अतः उन समूह का ही नाम उपकेशगच्छ हुआ है, अतएव उपकेशवंश का गच्छ उपकेश गच्छ होना युक्तियुक्त और न्यायसंगत ही हैं । इतना ही क्यों पर इस समय के बाद भी ग्रामों के नाम से कइ गच्छ प्रसिद्धि में आये है जैसे कोरंटगच्छ, शंखेश्वरमच्छ, नाणावालगच्छ, वायटगच्छ, संडेरागच्छ, हर्षपुरियागच्छ, कुर्चपुरा गच्छ, भिन्नमालगच्छ, साचौरागच्छ - इत्यादि । यह सब ग्रामों के नाम से अर्थात् जिस जिस ग्रामों की और जिन जिन साधु समुदाय का अधिक विहार हुआ वे वे समुदाय उसी ग्राम के नाम से गच्छ के रूप में ओलखाने लग गई । अतएव उपकेशवंश का मूल स्थान उपकेशपुर और इसका मूल गच्छ उपकेशगच्छ ही हैं । हाँ, बाद में किसी अन्य गच्छ का अधिक परिचय होने से वे किसी अन्य गच्छ की क्रिया करने लग गइ हो यह एक बात दूसरी है पर ऐसा करनेसे उनका गच्छ नहीं बदल जाता है । अतएव उएश - उकेश - उपकेशवंश वालों का गच्छ उपकेशगच्छ ही हैं ।
( ६ ) आचार्य रत्नप्रभसूरिने उपकेशपुर ( श्रोसियाँ ) में सवाल नहीं बनाए तो फिर ये किसने और कहाँ बनाये ? तथा ये ओसवाल कैसे कहलाए ? क्या हमारे खरतर भाई इसका समुचित उत्तर दे सकेंगे ? =
( ७ ) यदि खरतरगच्छीय आचार्योंने ही श्रोसवाल बनाये हो तो फिर इन ओसवालों के मूलवंश के आगे उपकेशवंश क्यों लिखा मिलता है जो कि हजारों शिलालेखों में आज भी विद्यमान हैं
हमारा तो यही एकान्त सिद्धान्त है कि यह उपकेशवंश
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का निर्देश-उपकेशपुर और उपकेशगम्छ को ही अपना मूलस्थान और उपदेशक उद्घोषित करता है।
(८) यदि खरतरगच्छ के प्राचार्योने हा ओसवाल बनाए हैं तो फिर इन ओसवालों की जातियों के साथ उप. केशवंश नहीं पर खरतरवंश ऐसा लिखा होना चाहिये था, पर ऐसा कहीं भी नहीं पाया जाता है । अतः आप को भी मानना होगा कि प्रोसवालों का मूलवंश ऊपकेशवंश है
और यह उपकेशगच्छ एवं उपकेशपुर का ही सूचक है। जैसे-नागोरियों का मूल स्यान नागोर, जालोरियों का जालोर, रामपुरियों का रामपुर, फलोदियों का फलोदी, और बोरूदियों बोकदा है। वैसे ही उपकेशियों का मूल स्थान उपकेशपुर (ओसियाँ) है तथा कोरंट, शखेसग, नाणावाल, संडेरा, कुर्चपुरा, हर्षपुरा, आदि गच्छ गाँवों के नाम से ही हैं ऐसे ही उपकेश गच्छ भी उपकेशपुर में उपकेशवंशीया धावकों का प्रतिबोध होने से प्रसिद्धि में आया है।
(९) यदि खरतरगच्छाचार्योने हो ओसवाल बनाये ऐसा कहा जाय तो यह कहाँ तक सङ्गत है ? क्योंकि ओसवाल ( उपकेशवंश ) के अस्तित्व में आने के समय तक खरतरों का जन्म भी नहीं हुआ था । कारण-खरतरगच्छ तो प्राचार्य जिनदत्तसूरि की प्रकृति के कारण विक्रम की बारहवी शताब्दी में पैदा हुआ है और ओसवाल (उपकेशवंशी) विक्रम पूर्व ४०० वर्षों में हुए हैं । अर्थात् खरतरगच्छ के जन्म से १५०० वर्ष पूर्व ओसवाल हुए हैं तो उन १५०० वर्ष पहिले बने हुए श्रोसवालों को खरतर गच्छाचार्याने कैसे
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निर्णय" "ओसवालोत्पत्ति विषयक शंकाओं का समाधान "
और "जैन जातियों के गच्छों का इतिहास" नामक पुस्तकें मंगाकर पढिये । उनसे स्वतः स्पष्ट हो जायगा कि श्रोसवाल किसने बनाये है ?
यदि कई अज्ञ श्रोसबाल अपने मूल प्रतिवोधक आचार्यों एवं गच्छ को भूल कर खरतरों के उपासक बन गए हो और इसीसेही कहलाता हो कि श्रोसवाल खरतरोंने बनाए हैं ?। यदि हाँ, तब तो दुढिये तेरहपन्थियो को ही प्रोसवाल बनानेवाले क्यों न मा लया जाय-कारण कई अज्ञ ओसवाल इनके भी उपासक हैं ।
खरतरों ! अबीतक आप को इतिहास का तनक भी ज्ञान ही नहो यही कारण है कि ऐसे स्पष्ट विषय को भी अड्गबड़ग कह कर अपने हृदय के अन्दर रही हुई द्वेषाम्नि को बाहिर निकालकर अपनी हांसी करवा रहे हो।
भाईयों ! अब केवल जबानी जमा खर्च का जमाना नहीं है । आज की वीसर्वी शताब्दी इतिहास का शोधन युग है। यदि आप को अोसवालों का स्वयंभू नेता बनना है तो कृपया ऐसा कोई प्रमाण जनता के सामने रक्खो ताकि समग्र प्रोसवाल जाति नहीं तो नहीं सही पर एकाद श्रोसवाल तो किसी खरतराचार्य का बनाया हुआ साबित हो सके।
(१६) कई खरतर लोग जनता को यों प्रम में डाल. रहे हैं कि ८४ गच्छों में सिवाय खरतराचार्यों के कोई भी प्रभाविक आचार्य नहीं हुआ है। जैन समाज पर एक खरतराचार्यों का ही उपकार है । इत्यादि।
समीक्षा खरतरो! आप को इस बात के लिए. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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लम्बे चौड़े विशेषणों से कहने की जरूरत नहीं है। थली के अनभिज्ञ मोयों को ब्रम में डालने का अब जमाना नहीं है। एक खरतरगच्छ में हो क्यों पर मेरे पास जो ३०० गच्छों की लिस्ट है उन सभी गच्छों में जो जो प्रभाविक आचार्य हुए हैं वे सब पूज्यभाव से मानने योग्य हैं; किन्तु आप का हृदय इतना संकीर्ण क्यों है कि जो आप दृष्टिराग में फँस कर केवल एक खरतरगच्छ के आचार्यों की ही दुन्दुभी बजा रहे हो । आप के इस एकान्तवादने हो लोगों को समीक्षा करने को अवकाश दिया है । भला, आप जरा एक दो ऐसे प्रमाण तो बतलाईये कि खरतरगच्छ के अमुक आचार्यने जनोपयोगो कार्य कर अपनी प्रभाविकता का प्रभाव जनता पर डाला हो? जैसे किः१-आचार्य रत्नप्रभसूरिने उपकेशपुर में राजा प्रजा को जैनी
बना कर महाजनसंघ की स्थापना की। इसीप्रकार यक्षदेवसूरि, ककसूरि, देवगुप्तसूरि, सिद्धसूरि आदिने
अनेक नरेशों को जैन बनाये । २-आचार्य भद्रबाहुने मौर्यमुकुट चन्द्रगुप्तनरेश को प्रतिबोध
कर जैन बनाया । ३-आर्यसुहस्तीने सम्राट सम्प्रति को प्रतिबोध कर जैन
बनाया। ४-आर्यसुस्थोरिने चक्रवर्ती खारवेल को जैन बनाया । ५-सिद्धसेनदिवाकरसूरिने भूपति विक्रम को जैन बनाया। ६-आचार्य कालकसूरिने राजा धूवसेन को जैन बनाया। ७-आचार्य बप्पभट्टसूरिने ग्वालियर के राजा आम को
जैन बनाया।
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८-आचार्य शीलगुणसूरिने वनरोज चावड़ा गुर्जरनरेश को
जैन बनाया। ९-उपकेशगच्छीय जम्बुनाग गुरुने लोवापट्टन में ब्राह्मणों को
पराजित कर वहाँ के भूपति पर प्रचण्ड प्रभाव डाल
जैनधर्म की उन्नति की । और अनेक मदिर बनाये । १०-उपकेशगच्छीय शान्तिमुनिने त्रिभुवनगढ़ के भूपति को
जैन बनाया उनके किल्ला में जैन मंदिर की प्रतिष्ठा की। ११-उपकेशगच्छीय कृष्णर्षिने सपादलक्ष प्रान्त में अजैनों को
जैन बना कर धर्म का प्रचार बढ़ाया । १२-अंचलगच्छीय जयसिंहसरिने भी कई जैनेतरों को
जैन बनाये। १३-उदयप्रभसूरिने हजारों अजनों को जैन बनाये । १४-तपागच्छीय सोमतिलकसूरि, धमघोषसूरि, आदि महा
प्रभाविक हुए और कइ नये जैन बनाये। १५-संडारागच्छीय यशोभद्रसूरिने नारदपुरी के राव दूधा
को जैन बनाया । १६-कलिकालसर्वज्ञ भगवान् हेमचन्द्राचार्यने राजा कुमार
पाल को जैन बनाकर १८ देशों में जैन धर्म का झण्डा
फहराया और हजारो जैन मंदिरोकी प्रतिष्ठा करवाई। १७-आचार्य वादीदेवसूरिने ८४ बाद जीतकर जैन धर्म की
पताका फहराई । १८-द्रोणाचार्य के पास अभयदेवसूरिने अपनी टीकाओं
का संशोधन करवाया ।
यदि इस भाँति क्रमशः लिखे जायँ तो खरतरातिरिक्त गच्छाचार्यो के हजारों नंबर आ सकते हैं तो क्या किसी
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खरतरगच्छ के प्राचार्यने भी पूर्व कार्यों में से एक भी कार्य करके बतलाया है कि आप फूले ही नहीं समाते हो ? । आप नाराज न होना, हमारी राय में तो खरतराचार्योंने केवल उत्सूत्रप्ररूपणा करने के और जैन समाज में फूट कुसंप बढ़ाने के सिवाय और कोई भी काम नहीं किया और आज भी श्वेताम्बर समाज में जो कुसम्प है वह अधिकतर खरतरों के प्रताप से ही है। अन्यथा आप यह बतावें कि " जिस ग्राम में खरतरों का अस्तित्व होने पर भी उस ग्राम में फूट कुसम्प नहीं है, ऐसा कौन ग्राम है ? ।" दूर क्यों जावें? आप खास कर नागौर का वर्तमान देखिये-श्रीमान् समदड़ियाजो के बनाये हुए स्टेशन के मन्दिर की प्रतिष्ठा के समय क्या श्वेताम्बर, क्या दिगम्बर और क्या स्थानकवासी सभीने अभेदभाव से एकत्रित होकर जैन धर्म की प्रभावना की थी और इसके लिये जैनेतर जनता जैन धर्म की मुक्तकण्ठ से भूरिभूरि प्रशंसा कर रही थी; किन्तु जव खरतरों का श्रागमन होने का था तब खरतरगच्छीय अज्ञलोंगोने अपने प्राचार्यों की अगवानी के निमित्त ही मानों जैन श्वेता. म्बर मूर्तिपूजक समाज के बंधे हुए प्रेम के २ टुकड़े कर दो पार्टिये बना डाली। यही कारण है कि अब तपानच्छ के बृहद समुदाय को भी खरतर साधुओं की क्लेशमय प्रवृत्ति के कारण उनका बॉयकाट करना पड़ा है। समझ में नहीं आता है कि खरतरलोग ऐसी दशा में विनाशिर पैर की गप्पें हांक अपने प्राचार्यों का कहाँ तक प्रभाव बढाना चाहते हैं ? । खरतरों को यह सोच लेना चाहिये कि अब केवल हवाई किल्लों से मानीहुइ इजत का भी रक्षण न होंगा; क्यों कि वर्तमान में तो जनता जरासी बात के लिए भी प्रामाणिक प्रमाण पूछती है और उसीको हो मान देती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
२ टुकड़े कर
का समुदाय को भायही कारण है
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इस के अलावा खरतरगच्छीय यतियोंने अपनी किताबों में अपने खरतरगच्छाचार्यो को ऐसे रूप में चित्र दिये हैं कि वे वर्तमान यतियों से अधिक योग्यतावाले सिद्ध नहीं होते हैं; क्यों कि उन्होंने किसी को यंत्र मंत्र करनेवाला, किसी को दवाई करनेवाला, किसी को कौतूहल ( तमाशा) करनेवाला, किसी को गृहस्थियों की हुण्डी सिकारनेवाला तो किसी को जहाज तरानेवाला, किसो को धन, पुत्र देनेवाला आदि २ लिख कर उनको चमत्कारी सिद्ध करने की कोगिश की है । पर जब थलो के लोग बिल्कुल ज्ञानशून्य थे तब वे इन चमत्कारों पर मुग्ध हो जाते थे। पर अब तो लोग लिख पढ़ कर कुछ सोचने समझनेवाले हुए हैं । अब वे ऐसी कल्पित घटनाओं से उल्टा नफरत करने लग गए हैं । इस विषय में विशेष खुलासा देखो " जैन जाति निर्णय" नामक पुस्तक ।
खरतरगच्छीय कितनेक क्लेशप्रिय साधु जिन में कि किसी के प्रश्न का उत्तर देने की योग्यता तो है नहीं, वे अपने अज्ञ भक्तों को यों ही बहका देते हैं कि देखो इस किताब में अमुक व्यक्तिने अपने दादाजी की निंदा की है। जैसे कि आज से १२ साल पहिले "जैनजाति निर्णय" नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिस के विषय में उसका कुछ भी उत्तर न लिख, पक्षपाती लोगों में यह गलतफहमी फैला दी कि इस में तुम्हारी निन्दा है, परन्तु जब लोगोंने प्रस्तुत पुस्तक पढी तो मालूम हुआ कि इस में खरतरगच्छीय आचार्यों की कोई निदा नहीं; पर आधुनिक लोगोंने खरतरगच्छीय प्राचार्यो के विषय में कितनीक अयोग्य घटनाएँ घड़ डाली हैं उन्हीं का प्रतिकार है । और वह भी ठीक ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा किया गया है।
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आशा है, इस समय भो यह पुस्तक पढ़कर वे लोग एकदम चौक उठेगे, और अपने अज्ञ भक्तों को अवश्य भड़कावोंगे, पर मेरे खयाल से अब तो खरतरगच्छीय साधु एवं श्रावक इतने अज्ञानो नहीं रहे होंगे किविना पुस्तक को श्राद्योपान्त पढे वे मात्र क्लेशी साधुओं के बहकावे में आकर अपना अहित करने को तैयार हो जायं ।
मैंने मेरो किताब में खरतरगच्छोय आचार्य तो क्या पर किसी गच्छ के प्राचार्यो की निन्दा नहीं की है। क्यों कि किसी गच्छ के आचार्य क्यों न हो-पर जिन्होंने जैन धर्म की प्रभावना की है मैं उन सब को पूज्य दृष्टि से देखता है । हाँ-आधुनिक कई व्यक्ति पक्षपात के कीचड़ में फसकर मिथ्या घटनाओं को उन महान् व्यक्तियों के साथ जोड़कर उनकी हँसी करना चाहते हैं उन लोगों के साथ मेरा पहिले से हो विरोध था और यह प्रस्तुत पुस्तक भी आज उन्ही व्यक्तियों के मिथ्यालेख के विरोध में लिखी है। इसमें पूर्वाचार्यो की निन्दा का कहों लेश भी नहीं आने दिया है। मैं उन मिथ्या पक्षपाती लोगों से अपील करता हूं कि आप में थोड़ो भी शक्ति और योग्यता है तो न्याय के साथ मेरी की हुइ समीक्षाओ का प्रमाणिक प्रमाणों द्वारा उत्तर दे ।
बस, आज तो मैं इतना ही लिख लेखनी को विश्रांति देता हूँ और विश्वास दिलाता हूं कि यदि उपर्युक्त बातों के लिए खरतरों की ओरसे कोई प्रमाणिक उत्तर मिलेगा तो भविष्य में ऐसी २ अनेक बाते हैं जिन्हें लिख मैं खरतरों की सेवा करने में अपने को भाग्यशाली बनाऊँगा। 6. प्यारे खरतरों ! पूर्वोक्त बातों को पढ़कर आप एकदम उखड़ नहीं जाना, तथा चिढ़के गालीगलौज देकर कोलाहल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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न मचाना, अपितु शान्ति से इस पु क्योंकि प्रमाणों के प्रश्न असभ्य श या व्यक्तिगत निन्दा से हल न हो ही हल होंगे । यदि आप अपनी असभ्यता से पेश आएँगे तो याद मिथ्या लेख लिखने का कलंक क विषय में भविष्य में जो आपक होंगी- अतएव उसके प्रेरक कारण को पहिले ठीक सोच समझ के
अन्त में मैं अखिल खरतर पूर्वक यह प्रार्थना करूंगा कि यह सक्षिप्त समीक्षा की है। प्रमाणों द्वारा समाधान करेंगे तं उपकार समभुंगा । और शायद जा रहा हू तो आप सत्य प्रमा करें जिस से उस गलत मार्ग मार्ग को स्वीकार कर लूंगा; व पर संशोधक हूँ । मात्र आप मिलने की ही देर है । मैंने जो उद्देश्य और शुभ भावना से आप भी इस के उत्तर में जो लिखें कि केवल मेरे पर हो आप का कब्जा हो जायँ । लिखने पर भी आप मैसे हो तो उसके लिए मैं साग्रह
लेख कों यहीं समाप्त करदेत
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________________ आशा है, इस एकदम चौक उठेंगे, कावोंगे, पर मेरे खय एवं श्रावक इतने अज्ञ आद्योपान्त पढे वे मा अपना अहित करने का मैंने मेरो किताब पर किसी गच्छ के - कि किसी गच्छ के धर्म की प्रभावना की है / हाँ-आधुनिक कई मिथ्या घटनाओं को उन उनकी हँसी करना चाहता से हो विरोध था और व्यक्तियों के मिथ्यालेख पूर्वाचार्यो की निन्दो कार नहीं है मैं उन मिथ्या पक्षपाती र खरतरोंका अन्याय में थोड़ो भी शक्ति और प्रतिबिंब की हुइ समीक्षाओ का ! 21 बस, आज तो मैं देता हूँ और विश्वास के लिए खरतरों की ओर भविष्य में ऐसी 2 अने की सेवा करने में अपने प्यारे खरतरों ! पूर्व उखड़ नहीं जाना, तथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 'www.umaragyanbhandar.com