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खरतरगच्छाचार्यों का ही उपकार समझना एवं मानना चाहिए ।
समीक्षा अव्वल तो यह बात कहां लिखी है ? किसने कही है ? और आपने कहां सुनी है ? क्यों कि आज पर्यन्त किसी विद्वान्ने यह न तो किसी ग्रंथ में लिखी है
और न कहा भी है कि २२२ संवत् में रत्नप्रभसूरिने ओसियां में ओसवाल बनाये थे। यदि किन्हीं भाट भोजकोंने कह भी दिया हो तो आपने विना प्रमाण उस पर कैसे विश्वास कर लिया ? यदि किसी द्वेष के वशीभूत हो आपने इस कल्पित बात को सच मानली है तो उन भाट भोजकों के वचनों से अधिक कीमत आप के कहने की भी नहीं है। खरतरो ! लम्बी चौड़ी हांक के विचारे भद्रिक लोगों को प्रम में डालने. के पहिले थोडा इतिहास का अभ्यास करिये-देखिये !
(१) आचार्य रत्नप्रभसरि प्रभु पार्श्वनाथ के कट्टे पट्टधर भगवान् महावोर के निर्वाण के बाद पहिली शताब्दी में हुए है।
(२) जिसे आप ओसियां नगरी कह रहे हैं पूर्व जमाना में इस का नाम उपकेशपुर था ।
(३) जिन्हे आप ओसवाल कह रहे हैं इन का प्राचीन काल में उपकेशवंश नाम था ।
(४) उपकेशपुर में क्षत्रिय आदि राजपुत्रों को जैन बनाने का समय विक्रम पूर्व ४०० वर्ष अर्थात् वीरात् ७० वर्ष का समय था ।
(५) उपकेशपुर में नूतन जैन बनानेवाले वे ही रत्नप्रः भसूरि हैं जो प्रभु पार्श्वनाथ के छठे पट्टधर भगवान् महावीर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com