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के पश्चात् ७० वें वर्ष हुए और उन्होंने उन क्षत्रियादि नूतन जैनों का न तो ओसवाल नाम संस्करण किया था और न वे १५०० वर्ष ओसवाल ही कहलाये थे। हां, वे लोग कारण पाकर उपकेशपुर को त्याग कर अन्य स्थानों में जा बसने के कारण उपकेशी एवं उपकेशवंशी जरूर कहलाए थे। बाद विक्रम को दशवीं ग्यारहवीं शताब्दी में उपकेशपुर का अपभ्रंश ओसियां हुआ । तब से उपकेशवंशी लोग ओसवालों के नाम से पुकारे जाने लगे । यही कारण है कि श्रोसवालों की जितनी जातिएं हैं और उन्होंने जो मन्दिर मूत्तियों को प्रतिष्ठा करवाने के शिलालेख लिखोये हैं उन सब में प्रायः प्रत्येक जाति के आदि में उएश, उकेश और उपकेश वंश का प्रयोग हुआ है। और ऐसे हजारों शिलालेख आज भी विद्यमान हैं । जरा पक्षपात का चश्मा आंखों से नीचे उतार शान्त चित्त से निम्न लिखित शिलालेखों को देखियेः
-: मूर्तियों पर के शिलालेख :संग्रहकर्ता-मुनि जिनविजयजी-प्राचीन जैनशिलालेखसंग्रह भा.२ लेखांक वंशारगोत्र-जातियों लेखांक | वंश और गौत्र जातियों
उपकेशवंशे गणधरगोत्रे ।। २५९ | उपकेशवंशे दरडागोत्रे ३८५ उपकेश ज्ञातिका करेचगोत्रे २६० उपकेशवंशे प्रामेचागोत्रे
उपकेशवंशे कहाइगोत्रे | उ० गुगलेवागोत्रे ४१५ उपकेशज्ञाति गदइयागोत्रे | ३८८ | उ० चंद लियागोत्रे ३९८ । उपकेशज्ञाति श्रीश्रीमाल ३९१ उ० भोगरगोत्रे
चंडालियागोत्रे | ३६६ | उ० रायभंडारीगोत्रे ४१३ | उपकेशज्ञाति लोढागोत्रे । २९५ उपकेशवंशीय वृद्धसजनिया
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