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“ ऐ आचार्य शास्त्राऽनुसार खरूं बोल्या " बस. इस शब्द पर ही जिनेश्वरसूरिने खरतर विरुद मान लिया ? यदि हां, तब तो इस बिरुद की क्था कीमत हो सकती है और राजा दुर्लभने तो किसी को कवला कहा ही नहीं फिर खरतर यह कवला शब्द कहां से लाया ?
(४) राजा दुर्लभ स्वयं बड़ा भारी विद्वान् था । उस की सभा में अच्छे २ विद्वान उपस्थित रहते थे। जिनेश्वरसूरि भी विद्वान् हो होंगे । फिर कामीपात्र का ऐसा कोनसा तात्त्विक विषय था ? जिस का कि निर्णय राजसभा में करवाने को शास्त्रार्थ करना पड़ा । चैत्यवासीयों का समय विक्रम की पहली-दूसरी शताब्दीसे तेरहवीं शताब्दो का है। क्या इतने दीर्घकालीक अर्से में किसी चैत्यवासीने साधु के लिए कांसीपात्र रखने का कहा हैं ? जो कि जिनेश्वरसूरि को एक साधारण बात के लिए इतना बड़ा भारो शास्त्रार्थ करना पड़ा ? । इस से मालूम होता है कि या तो जिनेश्वरसूरि कोई साधरण व्यक्ति होंगे या खरतरोंने यह कोई कल्पित ढांचा ही तैयार किया हैं।
(५) जिनवल्लभसरिने-चितोड़ के किले पर महावीर के छ कल्याणक की प्ररूपणा की; यही कारण हैं कि चैत्य. वासियोंने जिनवल्लभसूरि को उत्सूत्रप्ररूपक निह्नव घोषित कर दिया और यह बात उपर के लेख से सिद्ध भी होती हैं।
वास्तव में न तो दुर्लभराजाने खरतर बिरुद दिया और न खरतरों के पास इस विषय का कोई प्रबल प्रमाण ही हैं । आचार्य जिनदत्तरि की प्रकृति खरतर होने के कारण लोग उनको
सरतर सरतर कहा करते थे । पहिले तो यह सब अपमान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com