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गच्छीय जिनप्रभसूरिने एक देवी द्वारा महाविदेह में विराजमान श्री सीमन्धर तीर्थङ्कर से निर्णय कराया कि भारत में किस गच्छ को उदय होगा ? और प्रभाविक प्राचार्य कौन है ? इस प्रश्न का उत्तर तीर्थङ्कर श्रीसीमन्धर के मुँह से सुन कर देवीने जिनप्रभसूरि के पास आकर कहा कि भारत में तपागच्छीय सोमतिलकसूरि महाप्रभाविक हैं उनके गच्छ का उदय होगा । इस पर जिनप्रभसूरि अपने बनाये सब ग्रंथ ले कर सोमतिलकसूरि के पास आए और उन्हे वन्दन कर वे ग्रंथ उनको अर्पण कर दिये । इस बात का प्रमाण काव्यमाला के सप्तम गुच्छक में मुद्रित हो चुका है । दादाजी के समय कक्कसूरि नामक प्राचार्य को सब गच्छोंवाले राजगुरू के नाम से मान कर पूजा करते थे, कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य उनके चरणों में शीश झुकाता था पर उनकी संतानने कदि ऐसे शब्दोच्चारण नहीं किया कि हमारे आचार्य ऐसे हुए हैं कारण केवल कहने से ही उनका महत्व नहीं बढ़ता हैं पर काम करनेवालों को सब लोग पूज्यदृष्टि से देखते हैं ।
इतना होने पर भी तपागच्छीय किसी व्यक्तिने यह नहीं कहा कि इस समय भारत में तपागच्छ का ही उदय है । और न उनको कहने की आवश्यकता ही है, क्यों कि तपागच्छ के आधुनिक प्रभाव को जनता स्वयं जानती है । कहा है कि:
" नहि कस्तूरि का गन्ध शपथेन विभाव्य । "
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अर्थात- कस्तूरी की सुगन्ध सौगन्ध से सिद्ध नहीं होती, वह तो स्वयं जाहिर होती है। जिनदशसूर के लिये केवल
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