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दीवार नंबर १४ कई खरतर लोग कहते हैं कि बादशाह अकबर की राज-सभा में खरतराचार्य जिनचन्द्रसूरिने मुल्लाओंकी टोपी आकाश में उडा दी थी और बाद में ओघा से पीट पीट कर उस टोपी को उतारी । इत्यादि
समीक्षा यह भी उसी सिग्गे की और बे शिर पाँव की गप्प है कि जो उपर लिखी उक्त गप्पों से घनिष्ट सम्बन्ध रखती है।
वि. सं. १६३९ में बादशाह अकबर को जगद्गुरु आचार्य श्री विजयहीरसूरिने प्रतिबोध कर जैनधर्म का प्रेमी बनाया । बाद विजयहोरसूरि के शिष्य शांतिचन्द्र, भानुचंद्र आदि बादशाह अकबर को उपदेश देते रहे। बादशाहने जैन धर्म को ठीक समझ कर प्राचार्य विजयहीरसूरि के उपदेश से एक वर्ष में छ मास तक अहिंसा का तथा शत्रुञ्जय वगैरह तीर्थो के बारे में फरमान लिख दिया इस से तपागच्छ की बहुत प्रभावना हुई । उस समय बीकानेर का कर्मचन्द्र बछावत बादशाह की सेवा में था उसने सोचा कि यह यशः केवल तपागच्छवालोंने हो कमा लिया तो खरतरगच्छाचार्यों को बुला कर कुछ हिस्सा इन से खरतरगच्छवालों को क्यों न दिरवाया जाय ? तब वि.सं. १६४८ में खरतराचार्य जिनचन्द्रसूरि को बुला कर बादशाह की भेंट करवाई । पर इस में खरतरगच्छवालों को अभिमान कर के फूल जाने की कोई बात नहीं हैं, क्यों कि वि. सं. १६३६ से १६४८ तक
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