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जिनेश्वरथरि और चैत्यवासियों के आपस में शास्त्रार्थ हुआ । जिस में जिनेश्वरसूरि को खरा रहने से राजा दुर्लभने खरतर बिरुद दिया और चैत्यवासियों की हार होने से उनको कवला कहा । इत्यादि ।
समीक्षाः-इस लेख की प्रामाणिकता के लिये न तों कोई प्रमाण दिया है और न किसी प्राचीन ग्रन्थ में इस बात की गंध तक भी मिलती है । खरतरों की यह एक आदत पड़ गई है कि वे अपने दिल में जो कुछ आता है उसे अडंगबडंग लिख मारते हैं जैसे कि खरतरगच्छीय यति रामला. लजी अपनी " महाजनवंश मुक्तावली" नामक पुस्तक के पृष्ठ १६८ पर उक्त शास्त्रार्थ उपकेश गच्छाचार्यों के साथ होना लिखते हैं और खरतरगच्छोय मुनि मग्नसागरजीने अपनी " जैनजाति निर्णय समाक्षा " नामक पुस्तक के पृष्ट ६४ में एक पट्टावलि का आधार लेकर के लिखा है कि:___" ३६ तत्पट्टे यशोभद्रसूरि लघु गुरुभाई श्रीनेमिचन्द्रसूरि एहवइ डोकरा आ० गुरुश्री उद्योतनसूरिनी प्राज्ञा लइ श्रीअंझहारी नगर थकी विहार करतां श्रीगुर्जरइ अणहलपाटणि आवी वर्धमानसूरि स्वर्गे हुआ तेहना शिष्य श्रीजिनेश्वरसूरि पाटणिराज श्रीदुर्लभनी सभाई कूर्चपुरागच्छीय चैत्यवासी साथो कास्यपात्रनी चर्चा कीधी त्यां श्रीदशवकालिकनी चर्चा गाथ कहोने चैत्यवासोने जीत्या तिवारई राज श्रीदुर्लभ कहइ "ऐ प्राचार्य शास्त्रानुसारे खरूं बोल्या." ते थकी वि.सं. १०८० वर्षे श्री जिनेश्वरसरि खरतर विरुद लीधो। तेहना शिष्य जिनचंद्र-लघु गुरुभाइ अभयदेव सूरि हुआ। तत्पाटे श्री
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