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उघाडवू । तेमांना पैसामांथो आचार्यादिकना अग्निसंस्कार स्थाने स्तूपादिक कराववी तथा त्यां यात्रा अने उजणीओ करवी।
७-आचार्योनी मूत्तियों कराववी । ।
८-चक्रेश्वरीनो स्तुति में जिनदत्तसूरि कर्तुं छे के विधि 'मार्गना शत्रुओंना गला कापनार चक्रेश्वरी मोक्षार्थी जनना विघ्न निवारो।
९-श्रावकने तीन वार सामायिक उच्चराववानी प्ररूपणा करवा मांडी।
१०-अजमेरमा पार्श्वनाथना देरामां तथा पोसहशालामा सरस्वतीनों प्रतिमा थपावी । एज देहरामा जेमने मांस पण चढ़े छे एवी शीतला वगेरा देवियों थपावी ।
११-ऐरावण समारूढ इत्यादि बलो उड़ावी दिकूपालोंनी पूजा करवाना श्लोकों तथा “सद्वेद्यां भद्रपीठे' इत्यादि काव्यों चैत्यवासी वादिवैताल शान्तिसूरिना करेल होवाथी सुविहितोए निषेध कर्या छतां जिनदत्तसूरिए चलाव्या ।
इनके अलावा और भी कई बातों को रहो बदल कर स्वच्छन्दता पूर्वक आचरण प्रचलित करडाली। क्या ऐसे भी युगप्रधान हो सकते है ?।। ___इस विषय में में अब अधिक लिखना ठीक नहीं समझता हुँ । कारण एक तो ग्रन्थ बढ़जाने का भय है, दूसरा खरतरों में सत्य स्वीकार करने की बुद्धि नहीं है। वे तो उल्टा लेखक ऊपर एकदम टूट पड़ते हैं। खैर! फिर भी मैं तो उनका उपकार ही समझता हूं कि उन्होंने मुझे इस लेख
१. जिनवल्लभमूरिने अपना विधिमार्ग मत अलग स्थापित किया।
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