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इस लेख से यह पाया जाता है कि बाफनों का मूल गोत्र बपनाग है और इनके प्रतिबोधक जिनदत्तसूरि के १५०० वर्षो पहिले हुए आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि हैं। इस शिलालेख में १३८६ के वर्षे में " उपके रागच्छे बम्पनागगोत्रे " ऐसा लिखा हुआ है फिर समझ में नहीं आता है कि ऐसी २ मिथ्या बातें लिख खरतरे अपने आचार्यो की खोटो महिमा क्यों करते हैं ? | यदि खरतरों के पास कोई प्रामाणिक प्रभाण हो तो जनता के सामने रक्खें अन्यथा ऐसी मायावी बातों से न तो आचार्यों की कोई तारीफ होती है और न गच्छ का गौरव बढता है बल्कि उल्टी हँसी होती है ।
जब बाफना उपकेशगच्छ प्रतिबोधित उसके रागच्छोपासक श्रावक हैं तब बाफनों से निकली हुई नाहटा, जांगड़ा, वैतालादि ५२ जातिएँ भी उपकेशगच्छ की ही श्रावक हैं। फिर जिनदत्तसूरि के ऊपर यह बोझ क्यों लादा जाता है ? | यदि कभी जिनदत्तसूरि आकर खरतरों कों पूछें कि मैंने कब बाफना जाति बनाई थो? तो खरतरों के पास क्या कोई उत्तर देने को प्रमाण है ? ( नहीं )
जैसे चोरडियों के लिये जोधपुर की अदालत में इन्साफ हुआ है वैसे ही बाफनों के लिए जैसलमेर की अदालत में न्याय हुआ था । वि. सं १८९१ में जैसलमेर के पटवों ( बाफनों ) ने श्री शत्रुंजय का संघ निकालने का निश्चय किया उस समय खरतर गच्छाचार्य महेन्द्रसूरि वहां विद्य मान थे। इस बात का पता बीकानेर में विराजमान उपकेरागच्छावार्य कक्कसूरि कों मिला। उन्होंने बाफत्रों की वंशाबलियों की बहियों देकर १९ विद्वान साधुओंों को जैसलमेर भेजा
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