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जिनवल्लभसूरि हुआ। तिणे चित्रकूट पर्वती आवी श्रीमहावीर नओ छटो कल्याणक प्ररूप्यो xxx इत्यादि." उपर्युक्त लेख का सारांश निम्न लिखित हैं:
१-वर्धमानमूरि का स्वर्गवास पाटण में हुआ बाद जिनेश्वरमरिने चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ किया ।
२-शास्त्रार्थ जिनेश्वरसूरि और कूर्चपुरागच्छीय चैत्यवासियों के आपस में हुआ था।
३-राजा दुर्लभने कहा था " ए आचार्य शास्त्रानुसार खलं बोल्या ” इस शब्द को ही जिनेश्वरमरिने खरतर विरुद मान लिया।
४-शास्त्रार्थ का विषय था कांस्य (कांसी) पात्र का।
५-जिनवल्लभमूरिने चित्तौड़ के किले में भगवान् महावीर का छट्ठा कल्याणक की प्ररूपणा की। समीक्षाः[विद्वानों को इन खरतरों के प्रमाणपर जरा ध्यान देना चाहिये]
(१) पाटण के इतिहास से यह निश्चय हो चुका है कि पाटण में दुर्लभ राजा का राज वि. सं. २०७८ तक था । अर्थात् १०७८ में दुर्लभ राजा का देहान्त हो चुका था तब वर्धमानसूरिने वि. सं १०८. में आबू के मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई थी। बाद वे किस समय परलोकवासी हुए और उनके बाद कब जिनेश्वर सरिने चैत्यवासियों के साथ
में दलज वि. सवय हो चुका
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