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बुचा, नाबरिया आदि ८४ जातिएं भी उपकेश गच्छाचार्य-प्रति. बोधित उपकेशगच्छोपासक ही हैं ।।
यदि किसी स्थान पर कोई जाति अधिक परिचय के कारण किसी अन्य गच्छ की क्रिया करने लग जायं तो भी उनका गच्छ तो वही रहेगा जो पूर्व में था। यदि ऐसा न हो तो पूर्वाचार्य प्रतिबोधित कई जातियों के लोग ढूंढिया, तेरहपन्थियों के उपासक बन उनको क्रिया करते हैं, पर इस से यह कभी नहीं समझा जा सकता कि उन जातियों के प्रतिबोधक दंढकाचार्य हैं । इसी भांति खरतरों के लिए भी समझ लेना चाहिये । इस विषय में यदि विशेष जानना हो तो मेरो लिखी “जैनजातियों के गच्छों का इतिहास" नामक पुस्तक पढ़ कर निर्णय कर लेना चाहिये ।
जिनदत्तसूरि के बनाये हुए सवा लाख जैनों में एक बाफना जाति का भी नाम लिखा है परन्तु वह भी जिनदत्तसूरि के १५०० वर्ष पूर्व आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा बनाई गई थी : और वाफनो का मूल गोत्र वप्पनाग है। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी तक बाफनों का मूल गोत्र बप्पनाग ही प्रसिद्ध थो, इतना ही क्यों पर शिलालेखों में भी उक्त नाम ही लिखा जाता था । उदाहरणार्थ एक शिलालेख की प्रति लिपी यह है___“सं. १३८६ वर्षे ज्येष्ठ व० ५ सोमे श्रीउपकेशगच्छे बप्पनाग गोत्रे गोल्ह भार्या गुणादे पुत्र मोखटेन मातृपितृ-- श्रेयसे सुमतिनाथबिम्बं कारितं प्र० श्रीककुदाचार्य सं. श्री ककसूरिभिः ।
बाबू पूर्णचंद्रजी सं, शि. तृ. पृष्ट ६४, लेखांक २२५३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com