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पुस्तक में बादशाह अकबर और जिनचंद्रसूरि का एक कल्पित चित्र दिया है उसमें आकाश के अन्दर टोपी का चिन्ह जरूर है; परन्तु यह शायद नाहटाजीने खरतरों को खुश रखने की गर्ज से दिया है, अन्यथा वे इसका उल्लेख जरूर करते ? | किन्तु इतिहास से इस टोपीवाली घटना को असत्य जानकर ही आपने उसका कहो नामवर्णन भी नहीं किया है, क्यों कि विद्वान् तो सदा मिथ्या लेखों से डरते रहते हैं । उन्हें भय रहता है कि झूठी बात के लिये पूछने पर प्रमाण क्या देंगे ? पर जिन्होंने अपनी अक्ल का दिवाला निकाल दिया है वे फिर झूठ सत्य की परवाह क्यों करते ।
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जिस प्रकार जिनचन्द्रसूरि के साथ मुला के टोपी की घटना कल्पित है वैसे हो बकरी के भेद बतलाने की घटना भी भ्रममात्र है, क्यों कि न तो यह घटना घटी थी और न इसके लिए कोई प्रमाण ही है । यदि खरतरों के पास इन दोनों घटनाओं के लिये कुछ भी प्रमाण हों तो अब भी प्रगट करें । वरना इस वीसवीं शताब्दी में ऐसे कल्पित कलेवरों की कौड़ी भी कीमत नहीं है बल्कि हांसी का ही कारण हैं ।
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दीवार नंबर १५
(१५) कई लोग अपनी अनभिज्ञता एवं आन्तरिक द्वेषभावना के कारण यह भी कह उठते हैं कि सं० २२२ में न तो ओसियां में ओसवाल हुए हैं और न रत्नप्रभसूरिने ओसवाल बनाये हैं । प्रत्युत ओसवाल तो खरतरगच्छाचार्योंने ही बनाये हैं । इस लिए तमाम ओसवालों को
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