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५-राजा श्रेणिक को रांनी चेलना हमेशां पूजा करती थी।
इत्यादि स्त्रियों की पूजा के प्रमाण लिखे जायें तो एक बृहद् ग्रंथ बन सकता है, पर इस बात के लिए प्रमाणों की आवश्यकता ही क्या है ? क्योंकि जहां श्रावकों को पूजा का अधिकार है वहां श्राविकाएँ पूजा करे इसमें शंका हो ही नहीं सकती है फिर समझ है नहीं पाता है कि कहनेवाले युगप्रधान ऐसी उत्सूत्र प्ररूपणा कैसे कर सके होंगे? शायद यह कहा जाता हो कि कई विवेकशून्य औरतें प्रभुपूजा करते समय कभा २ आशातना कर डालती हैं इस लिये स्त्रीपूजा का निषेध किया है । पर विश्वास होता है कि यह कथन दादाजी का तो नहीं होगा क्यों कि एकाद व्यक्ति श्राशातना कर भी डाले तो सब समाज के लिए इस का निषेध नहीं हो सकता है। और यदि ऐसा हो सकता है तो फिर विवेकशून्य मनुष्यों से कभी आशातना होने पर मनुष्य जाति के लिये भी प्रभुपूजा का निषेध क्यों नहीं किया । अथवा यह हमारा तकदीर ही अच्छा था कि जिनदत्तसूरि एक स्त्रीपूजा का ही निषेध कर अर्द्ध ढूंढक बन गये । यदि किसी पुरुष को भी कभी आशातना करने देख लेते तो वे पुरुषों को भी प्रभुपूजा का निषेध कर आधुनिक ढूंढियों से ४०० वर्ष पूर्व ही ढूंढिये बन जाते । फिर यह भी अच्छा हुश्रा कि उस समय बारह करोड़ जैनों में से केवल विवेकशून्य सवालाख जैन ही जिनदत्तसूरि के नूतन मत में सामिल हुए। खरतरों को यह सोचना चाहिये कि इस उत्सूत्र की प्ररूपणा कर आप के आचार्योने ढूंढिया तेरहपंथियों से कम काम नहीं किया है। क्या आप अपनी मिथ्या प्ररूपणा को किन्हीं शास्त्रीय प्रमाणों से सिद्ध कर सकते हो ?
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