Book Title: Kasaypahudam Part 01 Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatiya Digambar SanghPage 14
________________ हमें जो प्रेसकापी प्राप्त हुई है वह अमरावतीकी प्रतिके आधारसे की गई है। आराकी प्रति जैनसिद्धान्त भवन आराके अधिकारमें है। और वह हमें पं० के० भुजवलिजी शास्त्री अध्यक्ष जैनसिद्धान्त भवन आराकी कृपासे प्राप्त हुई है। संशोधनके समय यह प्रति हम लोगोंके सामने थी। इनके अतिरिक्त पीछेसे श्री सत्तर्कसुधातरङ्गिणी दि० जैन विद्यालयकी प्रति भी हमें प्राप्त हो गई थी, इसलिये संशोधनमें थोड़ा बहुत उसका भी उपयोग हो गया है। तथा न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजी कुछ शंकास्पद स्थल दिल्ली के धर्मपुरके नये मन्दिरजीकी प्रतिसे भी मिला लाये थे। संशोधनकी विशेषताएँ (१) इस प्रकार इन उपर्युक्त प्रतियोंके आधारसे प्रस्तुत भागके सम्पादनका कार्य हुआ है । ये सब प्रतियां लगभग ३५ वर्ष में ही सारे भारतमें फैली हैं इसलिये मूल प्रतिके समान इन सबका बहुभाग प्रायः शुद्ध है। फिर भी इनमें जो कुछ गड़बड़ हुई है वह बड़े गुटालेमें डाल देती है। बात यह है कि ताडपत्रकी प्रतिमें कुछ स्थल त्रुटित हैं और उसकी सीधी नकल सहारनपुरकी प्रतिका भी यही हाल है। पर उसके बाद सहारनपुरकी प्रतिके आधारसे जो शेष प्रतियां लिखी गई हैं उन सबमें वे स्थल भरे हुए पाये जाते हैं। अमरावती, आरा, सागर और देहलीकी सभी प्रतियोंका यही हाल है। जबतक हमारे सामने मूडविद्री और सहारनपुरकी प्रतियोंके आदर्श पाठ उपस्थित नहीं थे तब तक हम लोग बड़ी असमंजसताका अनुभव करते रहे । वे भरे हुए पाठ विकृत और अशुद्ध होते हुए भी मूलमें थे इसलिये उन्हें न छोड़ ही सकते थे और असङ्गत होने के कारण न जोड़ ही सकते थे। अन्तमें हम लोगोंको सुबुद्धि सूझी और तदनुसार सहारनपुर और मूडविद्रीकी प्रतियोंके मिलानका प्रयत्न किया गया और तब यह पोल खुली कि यह तो किसी भाईकी करामात है ऋषियोंके वाक्य नहीं । पाठक इन भरे हुए पाठोंका थोड़ा नमूना देखें . . . . . . 'उच्छेदवादीया ॥” (ता०, स०) "संसार दुःखसुखे ण वेवि उच्छेदवादीया ॥” (अ०, आ०) (१) ........... "... .... - ‘य लक्खणं एयं ॥” (ता०, स०) "उपजंति वियंति य भावा जियमेण णिच्छयणयस्स । णेयमविणट्ठ दव्वं दव्वट्ठिय लक्खणं एयं ॥” (अ०, आ०) इस प्रकार और भी बहुतसे पाठ हैं जो मूडविद्री और सहारनपुरकी प्रतियों में त्रुटित हैं पर वे दूसरी प्रतियों में इच्छानुसार भर दिये गये हैं। यह कारामात कब और किसने की यह पहेली अभी तो नहीं सुलझी है। संभव है भविष्यमें इस पर कुछ प्रकाश डाला जा सके। इन त्रुटित पाठोंके हम लोगोंने तीन भाग कर लिए थे (१) जो त्रुटित पाठ उद्धृत वाक्य हैं और वे अन्य ग्रन्थोंमें पाये जाते हैं उनकी पूर्ति उन ग्रन्थोंके आधारसे कर दी गई है। जैसे, नमूनाके तौर पर जो दो त्रुटित पाठ ऊपर दिये हैं वे सम्मतितर्क ग्रन्थकी गाथाएँ हैं। अतः वहाँसे उनकी पूर्ति कर दी गई है। (२) जो त्रुटित पाठ प्रायः छोटे थे, ५-७ अक्षरों में ही जिनकी पूर्ति हो सकती थी उनकी पूर्ति भी विषय और धवला जीके आधारसे कर दी गई है। पर जो त्रटित पाठ बहुत बड़े हैं और शब्दोंकी दृष्टिसे जिनकी पूर्तिके लिए कोई अन्य स्रोत उपलब्ध नहीं हुआ (१) देखो मुद्रित प्रति पु० २४९ और उसका टिप्पण नं० २। (२) देखो मुद्रित प्रति पृ० २४८ और उसका टिप्पण नं० १। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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