Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 421
________________ -०५] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३०७ शूनः सुभटो न भवेत, संग्रामाणे अनेकसुभटजयकारी शूरो न स्यात् । तर्हि कोऽसौ शुरः 1 यो मुनिर्भय्यो वा तरुणीकटाक्षबाणविद्धोऽपि तरुणीजनानां यौवनोन्मत्तस्त्रीजनानां सलीलहावभावविभ्रमरागचेष्टाविचेष्टितयुवतिजनसमूहानां नयनानि लोचनानि तेषां कटाक्षा अपाङ्गदर्शनानि केकरापाता त एव बाणाः शराः तैर्षिदः ताडितः सन् विकार विक्रिया मनःझोभ चञ्चललं न याति न प्राप्नोति स एव शूरशूर: अजेयमालो गंवेत् । उच्च च "शम्भुवयंभुहरयो हरिणेक्षणानो येनाकियन्तै सततं गृहकुम्भदासाः। बाबामगोचरचरित्रपविन्त्रिताय तस्मै नमो बलदते मकरध्वजाय ॥ मतेभकुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः केचित्प्रचण्डममराजवधेऽपि दक्षाः। किंतु अवीमि बलिनां पुरतः प्रसय कन्दर्पदर्यदलने विरला मनुष्याः ॥ तावन्महस्त्वं पाण्डिवं कुलीनत्वं विवेकिता। सावजवलति नाङ्गेषु इतः पञ्चेषुपावकः ॥ विकलयति कलाकुशल हसति शुचि पण्डित विडम्बयति । अधरयति धीरपुरष क्षणेन मकरध्वजो वीरः॥ दिवा पश्यति नो घूकः का नतं न पश्यति । अपूर्व कोऽपि कामान्धो दिवानत न पश्यति ॥ तथा विद्यार्यताम् । दुर्गन्धे चर्मगर्ने व्रणमुखशिखरे मूत्ररेतःप्रवाहे, मांसासदमाः कृमिकुलकलिते दुर्गमे दुनिरीक्षे । विष्ठाद्वारोपकण्ठे गुर्दविवरगलवायुधमार्तधुपे, कामान्धः कामिनीनां काटेतरनिकटे गर्दमत्युस्थमोहात् । ४०४ ॥ अथ दशप्रकार धर्ममुपसंहरति “एसो दह-प्पयारो धम्मो दह-लक्षणो हवे णियमा । अण्णो ण ईवदि धम्मो हिंसा सुहुमा वि जस्थथि ॥ ४०५ ॥ [छाया-एष दशप्रकारः धर्मः दशलक्षणः भवेत् नियमात् । अन्यः न भवति धर्मः हिंसा सूक्ष्मा अपि यत्रास्ति ॥] एथ प्रत्यक्षीभूतो जिमोक्तो धर्मः दशप्रकारः । उत्तमक्षमा १ उत्तममार्दवः २ उत्तमार्जनः । उत्तमसत्यम् । सप्तमीचम्) ५ उत्तमसंयमः ६ उत्तमतपः ७ उत्तमत्यागः ८ उत्तमाकिंचन्यम् १ उत्तमब्रहाचर्यम् १० इति देशाधिधधर्म: 1 संसारदुःखादुरल मोक्षसुखे धरतीति धर्मः भवेत् । दशमेद इति कथम् । दशलक्षणत्वात्, दशधर्माणा पृथक्पृथक् लक्षणानि सन्तीति देतोः। नियमात निश्चयल: दशलक्षणो श्रमों मवेत । पुनः अन्यो न धर्मः सौख्यवौद्धनैयायिकजैमिनीयचार्वाकजनाभासाविप्रणीतवेदस्मृतिपुराणादिकथितवमों नुषो न भवति न स्यात् । कुतः पत्र धर्मे सूक्ष्मा हिंसा सूक्ष्मो जीवनधो न चेतनाचेतनप्राणिवधो न । अपिशब्दात् स्थूलहिंसाजीवघातन न नास्ति गोमेधाश्वमेधगजमेधनरमेधादिकं नास्ति स धर्मः ॥४.५॥ अथ हिंसारम्भ गायत्रयेण धारयतिभावार्थ-और मी कहा है-'पृथ्वीपर मदोन्मत्त हाथीका गण्डस्थल विदारण करनेवाले वीर पाये जाते हैं। कुछ उग्र सिंहको मारनेमें भी कुशल हैं । किन्तु मैं बलवानों के सामने जोर देकर कहता हूं कि कामदेवका मद चूर्ण करनेवाले मनुष्य बहुत कम पाये जाते हैं' ।। वास्तवमें काम बड़ा ही बलवान है । इसीसे किसी कविने कहा है-'जिसने ब्रह्मा, विष्णु और महादेव को भी कामिनियोंका दास बना दिया तथा जिसकी करामातका वर्णन वचनोंसे नहीं किया जाता उस कामदेवको हमारा नमस्कार है'। और भी कहा है-'तमी तक पाण्डिल्य, कुलीनता और विवेक रहता है जबतक शरीरमें कामानि प्रज्वलित नहीं होती' || 'यह वीर कामदेव क्षणभरमें कलाकारको मी विकल कर डालता है, पवित्रताका दम्भ भरनेवालेको हंसीका पात्र बना देता है पण्डितकी विडम्बना कर देता है और धीर पुरुषको मी अधीर कर देता है । 'उल्लूको दिनमें नहीं दिखाई देता, कौवोंको रात्रिमें नहीं दिखाई देता । किन्तु कामसे अन्धे हुओं मनुष्य को न दिनमें दिखाई देता है और न रात्रिमें दिखाई देता है। अतः ब्रह्मचर्य दुर्धर है ॥ ४०४ ॥ अब दसधौके कथनका उपसंहार करते हैं । अर्थ-वह दस प्रकारका धर्म ही नियमसे दशलक्षण रूप धर्म है। इनके सिवाय, जिसमें सूक्ष्म भी हिंसा होती है यह धर्म नहीं है | भावार्थ-जो संसारके दुःखोंसे उद्धार करके जीत्रको मोक्षके सुखमें धरता है ... आदर्श तु येन कृताः सततं ते गृह। १ स इव । ३ व सुहमा ।

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