Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 508
________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४८९जिण-वयण-भायणटुं' सामि-कुमारेण परम-सद्धाए । रइया अणुवेहाओ' चंचल-मण-भणटुंध ॥४८९॥ [खाया-जिनवचनभावनार्थ स्वामिकुमारेण परमश्रद्धया। रचिताः अनुप्रेक्षाः चञ्चलमनोरोधनार्थं च ॥ रचिता निष्पादिता गायारूपेण रचिताः । काः । अनुप्रेक्षाः अनुप्रेक्ष्यते अवलोक्यते पुनः पुनः बिचार्यते वस्तुस्वरूपं याभिस्ताः अनुप्रेक्षाः द्वादशमावना: 1 केन रचिताः । खामिकमारेण भव्यवरपुण्डरीकधीस्वामिकार्तिकेयमुनीश्वरेण आमम्मशीलधारिणा अनुप्रेक्षा रचिताः । कया। श्रद्धया रुच्या उत्कृष्टभावनया। किमर्थ रचिताः । जिनवचमभावनाथ जिनानां वचनानि द्वादशाङ्गरूपाणि तेषां भावनाथ श्रद्धार्थ षड्नध्यसातत्वमवपदार्थचिन्तनरर्थ परद्रध्यं परसत्त्वं परित्यज्य स्वस्वरूपवद्रव्यस्वतस्वचिन्तननिमित्त वा । ब पुनः । किमर्थम् । चपलमनोहम्धनार्थ चपलचित्तवशीकरणार्थ चपलचितं विषयेषु परिभ्रमत् स्वस्वरूपे स्थिरीकरणाथमित्यर्थः ॥ ४८९ ॥ अथानुप्रेक्षाया माहात्म्यमभिधो बारस अणुवेक्खाओ' भणिया हु जिणागमाणुसारेण । जो पढाइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्र्ख ॥ ४९०॥ [छाया-द्वादश अनुप्रेक्षाः भणिताः खल्लु जिनागमानुसारेण । यः पठति शृणोति भावप्रति स प्रामोति उत्तम सौख्यम् । सभव्यः प्राप्नोति लभते । किं तत् । उत्तम सुख लोकातिकान्त मुक्तिसुखं सिद्धसुखम् अनन्तसौख्यमित्यर्थः । स कः । यो भव्योत्तमः । हु इति स्फुटम् । द्वादशानुप्रेक्षा अनित्याशरणसंसारादिद्वादशभावनाः पठति अध्ययनं करोति शृणोति एकाप्रतयाकर्णयति भाषयति रुचि करोति । कथंभूताः। मया श्रीखामिकार्तिकेयसाधना भणिताः प्रतिपादिताः । केन । जिनागमानुसारेण जिनप्रणीतसिद्धान्तानुमार्गेण । इति वकृत्यौद्धल परिहतम् ॥ ४९. ॥ अथान्त्यमालमाचष्टे तिहुवर्ण-पहाण-सामि कुमार-काले वि तविय-तव-वरण । वसुपुज्ज-सुयं मल्लिं चरम-तिय संथुवे णिच ॥ ४९१॥" [छाया-त्रिभुवनप्रधानस्वामिनं कुमारकाले अपि तप्ततपश्चरणम् । वसुपूज्यसुत मल्लिं चरमत्रिक संस्तुवे नित्यम् ॥] अहं श्रीखामिकार्तिकेयसाधुः संस्तुवे सम्यक्प्रकारेण मनोवाकायैः स्तौमि नौमि । कदा । नित्यं सदा अनवरतम् । कम् । आगे ग्रन्थकार अपना कर्तव्य प्रकट करते हैं । अर्थ-जिनागमकी भावनाके लिये और अपने चंचलमनको रोकनेके लिये स्वामी कुमारने अत्यन्त श्रद्धासे अनुप्रेक्षाओंकी रचना की है || भावार्थ-जिनके द्वारा वस्तुस्वरूपका वारंवार विचार किया जाता है उन्हें अनुप्रेक्षा कहते हैं । अनुप्रेक्षा नामक इस ग्रन्थकी रचना स्वामी कार्तिकेय नामक मुनिने की है । वे आजन्म ब्रह्मचारी थे यह बात 'कुमार शब्दसे सूचित होती है । इन्होंने इस मन्धरचनाके दो उद्देश्य बतलाये हैं। एक तो जिन भगवानके द्वारा प्रतिपादित बस्तुस्वरूपकी भावना और दूसरा अपने चंचल चित्तको रोकना । इससे भी ज्ञात होता है उनकी यह रचना ऐसे समयमें हुई है जब उन्हें अपने चंचल चित्तको रोकनेके लिये एक ऐसे आलम्बनकी आवश्यकता थी, जिससे उनका चित्त एकाम हो सके । अत: जिनका मन चंचल है, एकान नहीं रहता उन्हें इस शास्त्रका खाध्याय करना चाहिये, इसके करनेसे जिनागमकी श्रद्धाके साथही साय सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि होगी और मन इधर उधर नहीं भटकेगा ॥ ४८९ ॥ आगे अनुप्रेक्षा का माहात्म्य बतलाते हैं । अर्थ-इन बारह अनुप्रेक्षाओंको जिनागमके अनुसार कहा है । जो इन्हें पदता है, सुनता है और वारंवार भाता है वह उत्तम सुख प्राप्त करता है ।। ४९० ॥ आगे ग्रन्थकार अंतिम मंगलाचरण करते हैं । अर्थ-तीनों लोकोंके प्रधान इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवती वगैरहके खामी जिन १ म मायणथं । २ लमग म अणुपेहाउ (ओ?)। ३लग अणुवेखाइ। छ म सग उतभं । बम सुक्छ । ६.मग तिहुयण। ७ सामी। ८कम स ग तवयरण। ९वसंधुए। १० सामिकुमारानुप्रेक्षा समाप्तः। .

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