Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 514
________________ ४०० - कत्तिगेयागुप्पेफ्ला [गा०२९ अप्पाणं पि चैवतं जइ सक्कदि रखिंदु सुरिंदो वि । तो किं छंडदि सग्गं सवुत्तम-भोय-संजुतं ॥ २९ ॥ दंसण-गाण-चरितं सरणं सेयेह परम-सद्धाए । अण्णं कि पिण सरण संसारे संसरंताणं ॥ २० ॥ अप्पा णं पि य सरणं खमादि-भावेहिँ परिणदो होदि । तिब्ब-फसायाविहो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥ ३१ ॥ ३. संसाराणुवेक्खा एकं चयदि सरीरं अपणं गिण्हेदि णय-णवं जीवो। पुणु पुर्ण अण्णं अण्णं पिण्हदि मुंचेदि बहु-वारं ॥ ३२ ॥ एवं जं संसरणं णाणा-देहेसु होदिजीवस्स । सो संसारो भण्णदि मिच्छ-कसाएहिँ जुत्तस्स ॥ ३३ ॥ पाव-उँदयेण गरए जायदि जीवो सहेदि बहु-दुक्खं । पंच-पयारं विविहं अणोवमें अण्ण-दुक्खोहि ॥ ३४ ॥ असुरोदीरिय-दुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं । खित्तुभयं च तिघं अण्णोपण-कयं च पंचविहं ॥ ३५ ॥ छिजा तिल-तिल-मित्तं भिदिज्जद तिल-तिलंतरं सयलं । वैजग्गीऍ कढिज्जइ णिहप्पए पूय-कुंडम्हि ॥ ३६॥ इवेवमाइ-दुक्खं जं गरएँ सहदि एय-समयम्हि । तं सयलं यण्णेढुं ण सक्कदे सहस-जीहो वि ॥ ३७॥ सधं पि होदि णरए खेन-सहावेण दुक्खदं असुहं । कुविदा यि सब-कालं अण्णोणं होति रहयौ ॥ ३८ ॥ अण्ण-भवे जो सुयणो सो वि य णरएँ हणेइ अइ-कुविदो। एवं तिव-विवागं बहु-कालं विसहदे दुक्खं ॥ ३९ ॥ लग च। २ब चवंतो। ३ ब रक्खियं, ग रक्खिदो। “ग छरिदि। ५लमसग सेबेहि। हलसग परिणदं । म गाथाके अन्त्यमें 'असरणानुप्रेक्षा ॥ ३॥ ८ स पुण पुण। ९ब मुदि । १० लमग हवदि। लमग पाउदयेण, स पामोदएण। १२ चमनोवमं मम । लमसग मणुषण । १७ जग्गिद। ५ ब कुंदमि, स कुंशम्मि १६ बनिरह। ५७५ समिमि, म समयमि(1)। 1८लमग खिन्न । १९ लमसग भण्णुपणं । २०[इति]। २ब नेरड्या। २२मरा।

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