Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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-कतिगेयाणुप्पैक्या
३९
२८९ २३१
३४२ ૨૮૮
[उमास्यामि त० सू० १-२५] [षट्रप्राभृतटीकायामुघृतोऽयं लोकः ३-३१] [ भगवती आराधना २५२] [कुन्दकुन्द, नियमसार १.२] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ३८-४५] [वमुनन्दि, श्रावकाचार ३११] [गोम्मटसार जी० का ५८१] [गोम्मटसार जी. कां. १६] विसुनन्दि, श्रावकाचार ३.१] [ यशस्तिलक पृ. ३५८, मनुस्मृति ५-४०] [शानार्णव ३८-६५] [षखण्डागम पु. १, पृ.८]
२१० २८५ ३१३ ३७४ ३७२
२५४
३४९
रुशुभव मिश्रमिकर एकाप्रचिन्तानिरोधो एकादशके स्याने एकुतरसेठीए जाय य एगो मे सस्सदो अप्पा एतद्व्यसनपाताले एमेव होदि विदिओ एयद वियम्मि जे एयंतबुद्धदारसी एयारसम्मि ठाणे ओषध्यः पशवो ओं णमो अरइंताणमिति ओं णमो अरहताणं ओं हो ही है कण्ठदेशे स्थितः बड्जः कन्दर्प कौस्फुय्यं मौखर्य कम्मई दिवघणविकणई करचरणपुद्विसिरसाण कहो बोलो झंझा कलिलकलुषस्थिरत्वं करायमलविश्लेषात् क्यायविषयाहारत्यागो कंदस्स व मूलस्स व के मूछे [ मूले कंदै छालीपवाल कायस्सरगम्मि छिदो काउस्सग्गेण ठिओ शान्ताकमकरण काययोग तवस्त्यक्त्वा काययोगे ततः सूक्ष्म काययोगे स्थितिं कृत्वा कार्तिकेयमुखाज्जाता कार्य प्रति प्रयावीति कार्योत्पादः क्षयो हेतोः कासवासभगन्दरोदर कित्ती मेती माणस्स किदिकम्म पि करता क्रिमिकीटमिगोदादिभिः कुदेवखस्य भक्तश्च कुरजमातापतात
[रनकरण्डकाषकाचार ८१७ [योगीन्दु, परमात्मप्रकाश १-७८ ] [वमुनन्दि, श्रावकाचार ३३८] [भगवतीभाराधना २३२] [शिवाय] भगवती आराधना [शुभयन्द्र, शानार्णव ४३-६]
४१
२६१, २७६, ३३१
[गोम्मटसार जी० को० १८८] [गोम्मटसार जी.क. १८७] [ सुनन्दि, श्रावकाचार २७६ 1
२४
३८५
[शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-४९] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४९-५०] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव ४२-४८]
र
२०४
१५५
३६.
अष्टसहस्त्री [भाप्तमीमांसा ५८] [शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव २५-३२] [भगवती आराधना १३९; मूलाचार ५-१९१] [मूलाचार ५-१९१]
२७४
२३१

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