Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 440
________________ ३१६ खामिकार्तिकेयानुप्रेमा [गा. केमापि असल्पवचनं श्रुत्पम् मलीकम् आलं दत्त सस्य जायते, दिव्यादिकेन शपयेन सत्यो नरो जायते । उपमरहिरोपि पुंसि धर्मप्रभावात् लक्ष्मीः संपत्तिः संपया नानाविधा भवति । धर्मप्रमाण वषमाहाल्येन नरः अनयोऽपि न्यायरहितः अन्यायी अन्यो वा शुभंकरः सुर्खकरो वा हितकारको भवतीत्यर्थः । "व्याघ्रव्यालजलानलावि विपरस्तेषां ब्रजन्ति क्षत्र, कल्याणानि समुन्डसन्ति वियुधाः सानिध्यमध्यासते। कीर्तिः सतिमियति वात्स्युपवर धर्मः प्रणश्यत्ययम् , स्वनिर्वानमुखानि सेविदधते ये शीलमाविनते ।।" "नापिरपि हलादिपिगोविनी .भालोमा पर्वतोऽप्युपलति क्वेडोऽपि पीयूषति । विनोऽप्युत्सवति प्रियत्यरिरपि कोडातडागस्यपी, नाथोऽपि खगृहत्याटम्यपि नृणां धर्मप्रमावा धुवम् ॥" बति ॥ ४३४ ॥ अथ धर्मरहितस्त्र निन्दा गाधात्रयेण दर्शयति देवो वि धम्म-चत्तो मिच्छत्त-वसेण तरु-वरो होदि। घकी वि धम्म-रहिओ णिवहई णरए णे संदेहो ॥ ४३५ ॥ [छाया-देवः अपि धर्मत्यतः मिथ्यात्ववशेन तस्वरः भवति । चक्की अपि धर्मरहितः निपतति नरके म सन्देहः ॥] देवोऽपि भवनज्यन्तरज्योतिष्ककाल्पनिवासी भुरोऽमरः । अपिशब्दात् मनुष्यतिर्यजीवः । किंभूतः । धर्मत्याकः जिनोकः धर्मरहितः सन् तयवरो भवति चन्दनागलकर्पूरामसहकारबाक्षादिरूपाक्षवनस्पतिकामिने उपलक्षगात् पृथ्वीकाषिक: अफायिका पञ्चेन्द्रियतिर्यग्जीवः हीनमनुष्यो वा भवति जायचे उत्पद्यते । केन कृत्वा। मिथ्यात्ववशेन अतलवानपशेन कुदेवकुधर्मगुरुकुशास्त्राराधदेन । मिध्यादृष्टिदेवः क जायते चेत्, ततुकं च। “देवी देवाणं संपादि का सणितिरियणरे । पयपुढविआऊबादरपज्जत्तरे गमणं ।" इति । तथा चक्यपि चक्रवर्मपि षट्पण्डाधिपतिः चक्रवर्ती त्रिखण्डाधिपतिरपचक्री वासुदेवः प्रतिवासुदेवः । अपिशब्दात् मुकुटममाडलिकादिकः नरः धर्मयका, मिथ्यात्वदशेन कृत्वा नरके आवंशामेषाञ्जनारिष्टामस्वीमाषवीषु जायते सुभौममयदत्तादिवत् धर्मत्यकः, पापं मिथ्यात्वं च संपदे संपनिमित्तं न भवति संपदर्थ लक्षाभ्यर्थ न स्यात् ॥ ४३५॥ होती हैं, विद्वान् लोग उनके निकट आकर बैठते हैं, सर्वत्र उनका यश फैलता है, धर्मका संचय होता है, पापका नाश होता है और स्वर्ग तथा मोक्षका सुख प्राप्त होता है । और भी कहा हैधर्मके प्रभावसे अग्नि भी जलरूप हो जाती है, सर्प मी माला रूप हो जाता है, व्याघ्र भी हिरनके समान हो जाता है, दुष्ट हाथी मी घोड़ेके तुल्य हो जाता है, पहाइ भी पत्थरके टुकड़ेके तुल्य हो जाता है, विषभी अमृतके तुल्य हो जाता है, विघ्न भी उत्सवके रुपमै बदल जाता है, शत्रु भी मित्र हो जाता है, समुद्र मी तालाबके तुल्य हो जाता है, और जंगल मी अपने घरके तुल्य बन जाता है, यह निश्चित है ॥४३॥ आगे तीन गायाओंसे धर्मरहित जीवकी निन्दा करते हैं। अर्थ-धर्मरहित . देव भी मिथ्यापिके वश होकर वनस्पतिकायमें जन्म लेता है। और धर्मरहित चक्रवर्ती भी मरकर नरकमें जाता है, क्योंकि पापसे सम्पत्तिकी प्राप्ति नहीं होती । भावार्थ-कुदेव, कुधर्म, कुगुरु और धूठे शाओंकी आराधना करनेसे मनुष्य और तिर्यश्च की तो बात ही क्या, कल्पवासी देव भी मरकर एकेन्द्रिय हो जाता है । आगममें कहा है कि कर्मके वशसे देव और देवियाँ मरकर कर्मभूमिया तिर्यत्र और मनुष्य होते हैं, तथा बादर पर्याप्तक घृषिवीकाय, बादर पर्याप्तक जलकाय और प्रत्येक वनस्पतिमें जन्म लेते हैं। तथा छखण्डोंका स्वामी चक्रवर्ती और तीन खण्डके स्वामी नारायण और प्रतिनारायण मी मरकर सभौम और चक्रवर्ती ब्रह्मदत्तकी तरह मिथ्याक्के प्रभावसे नरकमें चले जाते हैं। अतः पापसे १.णिवडय । २सगण संपदे होदि ।

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