Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 500
________________ स्वामिकाचिकेयानुप्रेक्षा [गा० ४८७या व्यवस्थिताः लघुपन्धाक्षरोबारकालं स्थित्या ततः परन् । स्वखभावाद्वाजत्यूचं शुद्धात्मा बीतबन्धनः ।। इति । तथा कर्मप्रकृतिप्रन्थे । स एव सोगिकेवली यधन्तर्मुहूर्तावशेषायुष्यस्थितिः ततोऽधिकशेषाघातिकर्मत्रयस्थितिस्तदाष्टमिसमौदण्डकपाटप्रतरलोकपूरणप्रसरणसंहारस्य समुद्धातं कृत्वान्तमुहूर्तावशेषितायुष्यस्थितिसमानशेषावाहिकर्मस्थितिः सन् सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिनामतृतीयशुमध्यानयलेन कायवामनोयोगनिरोधं कृत्वा अयोगिकेवली भवति । यदि पूर्वमेव ससस्थिति कृत्वाऽघातिचतुष्टयस्तदा समुद्रातक्रियया विना तृतीय शुक्रध्यानेन योगनिरोधं कृत्वा अयोगिकेवाली चतुर्दशगुणस्थानवर्ती भवति । पुनः स एवायोगिकेवली न्युपरतक्रियानिवृत्तिनामचतुर्थशुक्रव्यानेन पञ्चलप्यारोच्चारणमात्रखगुणस्थानकालविचरमसमये देहादिद्वासप्ततिप्रकृती: क्षापयति । पुनः चरमसमये एकतर वेदनीयादित्रयोदशकर्मप्रकृन्तीः क्षपयति । तद्विशेषमाह । अयोगिकेवली आत्मकालदिचरमे अन्यतरवेदनीयं ५ देवगतिः २ औदारिकर्वक्रियिकाहारकलैजसकार्मणशरीरपञ्चक ५ तत् बन्धनपञ्चकं १२ तत्संघातपञ्चक १७ संस्थानषई २३ औदारिकवैकियिकाहारकशरीरातोपाङ्गत्रयं २६ संहननबई ३२ प्रशस्ताप्रशस्तवर्णपदकं ३७ सुरभिदुरभिगन्धर्य ३१ प्रशस्ताप्रशस्तरसपञ्चक ४४ स्पर्शाष्टकं ५२ देवगत्यानुपूर्व्यम् ५३ अगुरूलघुत्वम् ५४ उपघातः ५५ परघातः ५६ उरट्रासः ५७ प्रशस्ताप्रशस्तनिहायोगतिद्वर्य ५९ पोतिः ६. प्रत्येकशरीरे ६१ स्थिरस्वमस्थिरत्वं ६३ शुभत्वमशुभत्वं ६५ दुर्भगय ६६ सुखरत्व ६७ दुःस्थरत्वम् ६८ अनादेयत्वम् ६९ अयशःकीर्तिः ७० निर्माण ७१ नीचगोवामिति ७२ द्वासप्ततिप्रकृतीः ज्युपरतकियानिवृत्तिनामचतुर्थशलध्यानेन क्षपयति ॥ अयोगिकेवलि चरमसमये अन्यतरवेदनीयं १ मनुष्यायुः २ मनुष्यगतिः ३ पश्चेन्द्रियजातिः ४ मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य ५ त्रसत्वं ६ बादरत्वं ७ पर्याप्तकत्वं ८ सुभगत्वम् ९ आदेयत्वं १० यश-कीर्तिः ११ तीर्थकरत्वम् १२ उचैर्गोत्रं चेति १३ प्रयोदश प्रकृतीः चतुर्थशुक्लध्यानेन क्षपयति । पुनरपि तद्ध्यानशुक्ल चतुष्टयं स्पष्टीकरोति । श्येकयोगकाययोगायोगानां पृथक्ववितर्क त्रियोगस भवति। मनोवचनकायानामवष्टम्मेनात्मप्रदेशपरिस्पन्दम् आत्मप्रदेशचलनमीदम्बिध पृथक्त्ववितर्कमाये शुक्रध्यान भवतीत्यर्थः । । एकत्ववितक शुक्रव्यानं त्रिषु योगेषु मध्ये मनोत्रचनकायानां मध्ये अन्यतमैकावलम्भेनात्मप्रदेशपरिस्पन्दनम् आत्मप्रदेशचलनं द्वितीयमेकत्ववितर्क शुक्रव्यानं भवति २ । सूक्ष्मक्रिया प्रतिपातिकाययोगावलम्बनेनात्मप्रदेशचलन - उसी समय उनके समुच्छिन्नक्रिया नामक निर्मल ध्यान प्रकट होता है । अन्तिम समयमें शेषबची तेरह कर्मप्रकृतियों भी नष्ट हो जाती हैं ।। इस तरह पाँच हख अक्षरोंके उच्चारण करनेमें जितना समय लगता है उतने समय तक चौदहवें गुणस्थानमें रहकर वह शुद्धात्मा मुक्त हो जाता है । कर्मप्रकृति नामक ग्रन्थमें भी लिखा है-'यदि सयोगकेवलीके आयु कर्मकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त और शेष तीन अघातिकर्मोकी स्थिति उससे अधिक रहती है तो वे आठ समयमें केवली समुद्धातके द्वारा दण्ड कपाट प्रतर और लोकपूरण रूपसे आत्मप्रदेशोंका फैलाव तया प्रतर, कपाट, दण्ड और शरीरप्रवेश रूपसे आत्मप्रदेशोंका संकोच करके शेषकर्मोकी स्थिति आयुकर्मके बराबर करते हैं । उसके पश्चात् तीसरे शुक्ल ध्यानके बलसे काययोग, वचनयोग और मनोयोगका निरोध करके अयोगकेवली हो जाते हैं। और यदि सयोगकेवलीके चारों अघातियाकर्मोंकी स्थिति पहलेसे ही समान होती है तो समुद्घातके बिना ही तीसरे शुक्लथ्यानके द्वारा योगका निरोध करके चौदहवे गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली हो जाते हैं। उसके बाद वह अयोगकेवली व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक चौथे शुक्लध्यानके बलसे अयोगकेवली गुणस्थानके द्विचरम समयमें बहा. सर कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता है । फिर अन्तिम समयमै वेदनीय आदि तेरह कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता है | इसका खुलासा इस प्रकार है-'अयोगकेवलीके द्विचरम समयमें कोई एक वेदनीय, देवगति, औदारिक वैक्रियिक आहारक तैजस और कार्मण शरीर, पाँच बंधन, पाँच संघात, छ. संस्थान, तीन अंगोशंग, छ: संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगत्यानुपूर्व्य,

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