Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 502
________________ ३८८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४८७ मनोयोग बादरकाययोगं च परिहत्य सूक्ष्मकायोगे स्थित्वा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान समाश्रयति । यदा त्वन्तर्मुइर्तशेषायु:स्थितिः ततोऽधिकस्थितिवेद्यनामगोत्रकर्मत्रयो भगवान् भवति तदात्मोपयोगातिशयव्यापारविशेषः यथाख्यातचारित्रसहायो महासंवरसहितः शीघ्रतरकर्मपरिपाचनपरः सर्वकर्मरजःसमुडायनसमर्थस्वभावः दण्डकपाटपतरलोकपूरणानि निजात्मप्रदेशप्रसरणलक्षणानि चतुर्भिः समयः समुपहरति, ततः समान विहितस्थित्यायुर्वेद्यनामगोत्रकर्मचतुष्कः पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगावलम्बनेन सश्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं ध्यायति । कर्थ दण्डकादिसमुद्धात इति चेदुग्यते। काउस्सम्गेण ठिओ वारस अंगुलपमाणसमवई। वादूर्ण लोगुदयं दंडसमुम्घादमेगसमयम्हि ॥ मह उपद्रो संतो मूलसरीरप्पमाणदो तिगुण। दाहालं कुगइ जिणो दण्डसमुम्वादमेगसमयम्हि ईण्डपमाण बहल उइयं च कवाडणाम बिदियम्हि । समये दक्षिणवामे आदपदेससप्पणं कुणइ यमुहो होदि जिणों दक्खिणउत्तरगदो कवाडो हु । उत्तरमुहो दु जादो पुव्यावरगदो कवाडो दुवादतय बज्जिता लॉग आदम्पसप्पा कुणइ । तदिये समयम्हि जिणो पदरसमुग्धादणामो सो तो चउत्थसमये बादलयसहिदलोगसंपुष्णो । होति हु आदपदेसो सो चेव लोगपूरणो रस ण दु आउसरिसाणि णामगोदाणि वेयणीयं वा । सो कुणदि समुग्धार्थ णियमेण जिणो ण संदेहोसम्मासागसेसे उप्पण्ण जस्स केवलं जाण । ते णियमा समुग्धार्य सेसेसु हुवति भयाणजा की पढमे दंई कुणइ विदिये 2 कवाडयं तहा समये । तिदिये पयरं चैव य चलत्थए लोयपूरगये ।। विवरं पंचमसमये जोईमत्थाणयं तदी छठे। सत्तमए य कवार्ड संवरइ तदो मढमे दंड दिडजुगे ओरालं कवाडंजुगले य तस्स मिस्सं तु । पदरे य लोअपूरे कम्मेव य होदि गायथ्यो । दण्डकद्वयकाले औदारिकशरीरपर्याप्तिः । कपाटयुगले औदारिकमिश्रः । प्रतरयोलोकपूरणे च कार्मणः । तत्र अनाहार इति । तदनन्तरं व्युपरतक्रियानिवर्तिनामधेर्य समुच्छिनक्रियानित्यपरनामकं ध्यान प्रारभ्यते । समुच्छिन्नः प्राणापामप्रचारः सर्वकायबाग्मनोयोगसर्वप्रदेशपरिस्पन्दक्रियाव्यापारथ यस्मिन् तत्समुच्छिम क्रियानिवतिध्यानमुच्यते । तस्मिन् समुच्छिानक्रियानिवर्तिनि च्याने सर्वास्त्रवबन्धनिरोधं करोति सर्वशेषकर्मचतुष्टयविध्यसनं विदधाति । स भगवान् अयोगिबली सॉस काल ध्यानाभिनिदग्धकर्मभलकालाधनः यह आपत्ति करते हैं कि आजकल शुक्ल ध्यान नहीं हो सकता; क्यों कि एक तो उत्तम संहननका अभाव है, दूसरे दस या चौदह पूर्वोका ज्ञान नहीं है। इसका समाधान यह है कि इस कालमें शुक्ल ध्यान तो नहीं होता किन्तु धर्मध्यान होता है। आचार्य कुन्दकुन्दने मोक्षप्राभृतमें कहा भी है-'भरतक्षेत्रमें पंचमकालमें ज्ञानी पुरुषके धर्मध्यान होता है वह धर्मध्यान आत्मभावनामें तन्मय साधुके होता है । जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है | आज भी आत्मा मन बचन कायको शुद्ध करके ध्यानकरनेसे इन्द्रपद और लौकान्तिक देवत्वको प्राप्त करता है तथा यहाँसे च्युत होकर मोक्ष जाता है । तस्वानुशासनमें मी कहा है--जिन भगवानने आज कल यहाँपर शुक्लध्यानका निषेध किया है | तथा श्रेणीसे पूर्ववर्ती जीवोंके धर्मध्यान कहा है ॥ तत्वार्थसूत्रमें सम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चारोंको धमध्यानका स्वामी कहा है || धर्मध्यानके दो भेद हैं-मुख्य और औपचारिक । अप्रमत्त गुणस्थानमें मुख्य धर्मध्यान होता है और शेष तीन गुणस्थानोंमें औपचारिक धर्मध्यान होता है । और जो कहा जाता है कि अपूर्वकरण गुणस्थानसे नीचेके गुणस्थानोंमें उत्तम संहनन होने पर ही धर्मध्यान होता है सो आदिके तीन उत्तम संहननोंके अभावमें भी अन्तके तीन संहननोंके होते हुए धर्मध्यान होता है। जैसा कि तत्त्वानुशासनमें कहा है-आगममें जो यह कहा है कि क्न शरीरवालेके ध्यान होता है सो यह कथन उपशम और क्षपकश्रेणिकी अपेक्षासे है । अतः नीचेके गुणस्थानोंमें ध्यानका निषेध नहीं मानना चाहिये | और यह जो कहा है कि दश या चौदह पूर्वाका ज्ञान होनेसे ध्यान होता है यह मी उत्सर्ग कथन है । अपवाद कथनकी अपेक्षा पाँच समिति और तीन गुप्ति इन आठ प्रवचन माताओंका ज्ञान होनेसे मी ध्यान होता है, और केवल

Loading...

Page Navigation
1 ... 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589