Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 501
________________ -१८७] १२. धर्मानुभेक्षा भवति ३ । व्युपरतक्रियानिवृषिशुक्लध्यानमेकमपि योगमवस्मयात्मप्रदेशचलन भवति ४ । वितर्कः श्रुतं विशेषणं विशिष्ट वा तर्कण सम्यगूहन वितर्फः श्रुतं श्रुतज्ञानम् । वितर्क इति कोऽर्थः । श्रुतशानमित्यर्थः । प्रथम छमध्यानं द्वितीय च शुक्रध्यान श्रुतज्ञानबलेन ध्यायते इत्यर्थः। वीचारोऽर्थव्यानयोगसंक्रान्तिः। अर्थश्व व्यञ्जनं च योगसंक्रान्तिः अर्थक्ष व्यजनं च योगब अर्थव्यञ्जनयोगास्तेषां संक्रान्तिः परिवर्तनं वीचारो भवतीति । अथों ध्येयो ध्यानीयो ध्यातव्यः पदार्थः द्रव्य पर्यायो वा । म्याने वचनं शब्द इति २ । योगः कायवाम्मनःकर्म ३ । संक्रान्तिः परिवर्तनम् । तेनायमर्थः, द्रध्यं ध्यायति द्रव्य त्यक्त्वा पर्यायं ध्यायति, पर्याय च परिहत्य पुनः द्रव्यं धायति इत्येवं पुनः पुनः संक्रमणमर्थसंक्रान्तिरुच्यते । तथा श्रुतज्ञानशब्दमबलम्ब्य अन्यं श्रुतज्ञानशब्दमवलम्बते, तमपि परित्यापरं श्रुतज्ञानवचनमाश्रयति । एवं पुनः पुनः श्रुतज्ञानाश्रयमाणश्च व्य लभतेसा योग गुमायो । भलोग वा आश्रयति तमपि विमुच्य काययोगमागच्छति। एवं पुनः पुनः कुर्वन् योगसंक्रान्ति प्राप्नोति ३१ अर्थव्यञ्जनयोगानां संकान्तिः परिवर्तनं वीचारः कथ्यते। तपाहि भव्यचरपुण्डरीकः उत्तमसंहननाविष्टः मुमुक्षुः द्रव्यपरमाणु इव्यस्य सूक्षमत्वं भावपरमाणु पर्यायस्य सूक्ष्मत्वं दा ध्यायन् समारोपितश्रुतज्ञानसामर्थ्यः सन् अर्थव्याने कायवचसी द्वे च पृथक्त्वेन संक्रामता मनसा असमर्थवालकोधमवत् अतीक्ष्णेनापि कुठारादिना चिराष्ट्रः छिन्दन, इद मोहप्रकृतीरुपशमयन् क्षपयन् वा मुनिः पृथक्वत्रितर्फवीचारध्यान भजते । स एवं पृयस्यवितर्कवीचारध्यानभाग मुनिः समूलतूलं मोहनीयं कर्म निर्दिधक्षन मोहकारणभूतसूक्ष्मलोमेन सह निर्दधुमिच्छन् भस्मसात् कर्तुकामः अनन्तगुणविशुद्धिक योगविशेष समाश्रित्य प्रचुरतराणां ज्ञानावरणसहकामीभूताना प्रकृतीनां बन्धनिरोधस्थितिहासौ च कुर्वन् सन् श्रुतज्ञानोपयोगः सन् परिहतार्थव्यचनसंक्रान्तिः सन् अप्रचलिलम्वेताः क्षीणकषायगुणस्थाने स्थितः सन् चैयमणिरित्र निकलकः निरुपलेपः सन् पुनरवस्तादनिवर्तमानः एकत्लवितर्कावीचार ध्यान ध्यात्वा निर्दग्धघातिकर्मेन्धनो भगवांस्तीर्थकरदेवः सामान्यानगारफेवली वा गणधरकेवली वा प्रकर्षेण देशोना पूर्वकोये भूमण्डले विहरति स भगवान् यदा अन्तर्मुहूर्तशेषायुर्भवति अन्तर्मुहूर्तस्थितिवेद्यनामगोत्रश्च भवति तदा सर्व वाम्योग अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्रास, प्रशस्त और अप्रशस्त बिहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःखर, सुखर, अनादेय, अयशाकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, ये बहात्तर प्रकृतियाँ व्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यानके वलसे क्षय होती हैं । और अन्तिम समयमें कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पश्चेन्द्रिय जाति, मनुष्यगत्यानुपुर्व्य, स, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश:कीर्ति, तीर्थक्कर, उच्चगोत्र ये तेरह प्रकृतियाँ क्षय होती हैं ।' रविचन्द्रकृत आराधनासारमें कहा है'कर्मरूपी अटवीको जलानेवाला शुक्लध्यान कषायोंके उपशम अथवा क्षयसे उत्पन्न होता है और प्रकाशकी तरह स्वच्छ स्फटिक मणिकी ज्योतिकी तरह निश्चल होता है। उसके पृथक्ववितर्कवीचार आदि चार भेद हैं ॥ चौदह पूर्वरूपी श्रुतज्ञानसम्पत्तिका आश्रय लेकर प्रथम शुकध्यान अर्थ, व्यंजन और योगके परिवर्तनके द्वारा होता है । तथा चौदह पूर्वरूपी श्रुत ज्ञानका वेत्ता जिसके द्वारा एक वस्तुका आश्रय लेकर परिवर्तन-रहित ध्यान करता है वह दूसरा शुक्ल ध्यान है || समस्त पदार्थों और उनकी सब पर्यायोंको जाननेवाले केवली भगवान काययोगको सूक्ष्म करके तीसरे शुक्ल ध्यानको करते है । और शीलके खामी अयोगकेवली भगवान् चौथे शुक्ल ध्यानको करते हैं | आर्तध्यान आदिके छ: गुणस्थानों में होता है । रौद्रध्यान आदिके पाँच गुणस्थानोंमें होता है और धर्मध्यान असंयत सम्यादृष्टिको आदि लेकर चार गुणस्थानोंमें होता है । तया अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में पुण्यपापका अभाव होनेसे विशुद्ध शुक्लध्यान होता है | उपशान्त कषायमें पहला शुक्लध्यान होता है, क्षीण कषायमें दूसरा शुक्लध्यान होता है, सयोग केवलीके तीसरा शुक्लध्यान होता है, और अयोग केवलीके चौथा शुक्लध्यान होता है । इस प्रकार चारों शुक्लध्यानोंका वर्णन समाप्त हुआ । शंका-कुछ लोग

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