Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 505
________________ -५८७] १२. धर्मानुप्रेक्षा अन्तर्महुर्तेन पूर्ववत् क्रमेण योगनिरोधं कृत्वा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं निष्ठापयन्न तत्समये समुच्छिमकियानिवृत्तिध्यान प्रारब्धुमहति । तत्पुनः अत्यन्तपरमशुक्न समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारसर्वकायवाचनोयोगप्रदेशपरिस्पन्दनक्रियाच्यापारतमा समुछिनक्रियानिवृत्तीत्युच्यते । तटुलेन ब्यग्रीतिप्रकृतीः क्षपयित्वा मोक्षं गच्छन्तीत्यर्थः । तथा द्रश्यसंग्रहोक्तं च । तद्यया । पृथक्त्ववितर्कवीचार तावत्कथ्यते द्रव्यगुणपर्यायाणां मिनत्वं पृयत्वं भण्यते खशुद्धास्मानुभूतिलक्षणं भावभुतं तद्वाचकम् अन्तर्जल्पनं वा वितर्को भष्यते । अनीहितपस्यान्तरपरिणमन वचनाद्वचनान्तरपरिणमनं मनोवचनकाययोगेषु योगाद्योगान्तरपरिणमनं वीचारो भण्यते । अत्रायमर्थः । यद्यपि भ्याता पुरुषः खशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिचिन्तां न करोति, तथापि यावतांशेन वरूपे स्थिरत्वं नास्ति लावताशेनानीहितवृत्त्या विकल्पाः स्फुरन्ति, तेन कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान भण्यते । तचोपशमश्रेणिविवक्षायामपूर्वोपशमिकानिवृत्युपसमिकसूक्ष्मसापरायोपसमिकोपशान्सकवायपर्यन्तगुणस्थानचतुष्टये भवति । आपकोण्या पुनरपूर्वकरणक्षपकानिवृत्तिकरणक्षपकसूक्ष्मसापरायक्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये चेति प्रथमं शुकध्यान व्याख्यातम् ॥ द्वितीयशुरुध्यान पूर्व कथितमस्ति ॥ सूक्ष्यकायकियाच्यापाररूपं च तदप्रतिपाति च सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिसंज्ञ तृतीयशभ्यान, तमोपचारेण सयोगिकेवलिजिने भवतीति । विशेषेणोपरप्ता निहता क्रिया यत्र तथ्यपरतक्रिय ब्युपरतक्रिय च तदनिवृत्ति च अनिवर्तच तापरतक्रियानिवृत्तिसंज्ञ चतुर्थ शुक्लध्यानम्। तच्चोपचारेण अयोगिफेवालिजिने स्यात् ॥ तथा रविचन्द्रकृताराधनासारे। आकाशस्फटिकमाणिज्योतिर्वा निश्चलं कषायाणाम्। प्रशमक्षयजं शुकध्यानं कर्माटवीदहनम् । सपृथक्तचवितर्कान्विसधीचारप्रभृतिभेदभिनं सत् । ध्यानं चातुर्विध्वं प्राप्नोतीत्साहुराचार्याः ॥ अर्थेष्वेक पूर्वक्षुतजनितज्ञानसंपदाधिला। त्रिविधात्मकबानाध्यापक टोन लेनम गईश्रुतवी प्रव्यसमाश्रितो येनाध्यायति संक्रमरहित शुक्रध्यानं द्वितीय तत् !! कैवल्यवोधनोऽर्यान् सर्वांश्च सपर्यायोस्तृतीयेन । शुकन ध्यायति वै सूक्ष्मीकृतकाययोगः सन् ॥ शैलेषितामुपेतो युगपद्विश्वार्थसंकुल सद्यः । ध्यायत्यपेतयोगो येन तु श चतुर्थ तत् ।। आयेष्वातंत्र्यानं पदस्खपि रौद्रं च पशमु गुणेषु धर्ममसंयतसम्यग्दृयादिषु भवति हिचसूर्षु ।। तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु । शुभाशुभमलाभावाविरा शझमभ्यधुः ॥ उपशमितकषाये प्रथम क्षीणकषाये द्वितीयक छ । भवति तृतीय योगिनि केलिनि चतुर्थमुपयोगे। इति चतुर्विधशुकथ्यानव्याख्यानं समाप्तम् । किमप्याक्षेपं तन्निरकरणं चात्र शिष्यगुरुभ्यां क्रियते । अद्य काले ध्यानं नास्ति, कुतश्चेत्, उनमसंहननाभावात् दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानाभावाच। अत्र परिहारः शुक्रध्यानं नाति, धर्म यानमस्तीति । तथा चोकं मोक्षप्रामृते श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः । ।भरहे दुस्समकाले धम्ममाण इवेइ गाणिस्स । तं अप्पसहावठिए ग हु मण्णइ सो दु अण्णाणी अन्ज वि तियरणसुद्धा अप्पा माऊण लहहि इंदत्त । लोयंतिमदेव तत्य चुया गिलुम् िजति ॥ परमध्यान ही परमबोधरूप है, परमध्यान ही शुद्धोपयोग है, परमध्यान ही परमयोग है, परमध्यान ही परम अर्थ है, परमध्यान ही निश्चय पंचाचार ( दर्शन, शान, चारित्र, तप और वीर्याचार ) है, निश्श्यध्यान ही समयसार है, परमध्यानही अध्यात्मका सार है, परमध्यान ही निश्चल षडावश्यकखरूप है, परमध्यान ही अभेद रखत्रयखरूप है, परमध्यान ही वीतराग सामायिक है, परमध्यान ही उत्तम शरण और उत्तम मंगल है, परमध्यान ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण है, परमध्यान ही समस्तकमौके क्षयमें कारण है, परमध्यान ही निश्चय चार आराधनाखरूप है, परमध्यान ही परमभावना है, परमध्यान ही शुद्धात्मभावनासे उत्पन्न सुखानुभूति रूप उत्कृष्ट कला है, परमध्यान ही दिव्यकला है, परमध्यान ही परम अद्वैतरूप है, परमध्यान ही परमामृत है, परमध्यान ही धर्मध्यान है, परमध्यान ही शुक्ल ध्यान है, परमभ्यान ही रागादि विकल्पोंसे शून्य ध्यान है, परमध्यान ही परम खास्थ्य है, परमध्यान ही उत्कृष्ट वीतरागता है, परमध्यान ही उत्कृष्ट साम्यभाव है, परमध्यान ही उत्कृष्ट मेद विज्ञान है, परमध्यान ही शुद्ध चिद्रूप है, परमध्यान ही उत्कृष्ट समाव रस रूप है । राग द्वेष आदि विकल्पोंसे रहित उत्तम माहाद स्वरूप परमात्मस्वरूपका ध्यान करना चाहिये । कहा मी है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र और सम्प तप ये चारों आत्मामें ही स्थित है अतः आत्मा ही मेरा शरण है।

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