Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 449
________________ - ] १२. धर्मानुसा जो राय-दोस हे आसण-सिमादियं परिचयह। बमा णिविक स्वासस्व रामो पंचमो परमो॥४४७ ॥ [छाया-यः रागद्वेषहेतुः शसनशम्यादिवं परित्यजति । भारमा निर्विषयः सदा तस्य तपः पञ्चमं परमम् ॥ तस्म निम्यस्य पवर्म विविक्तशय्यासनाख्यं तपश्चरक स्यात् । कीदर्श पचम तपः । परम परमकाया प्राप्त परमोधम् । तस्म कस्य । यः साधुः आसनशम्यादिकं सदा परित्यजति । आसनं सिंहासनपट्टपीठचकलादिकम् , शम्या शय मशक पल्परकाष्ठकलादिकम् । आदिशब्दात् तृणपाषाणशिलादिशयनस्थानम् । कीदृक्षम् आसनशय्यादिकं रागदेवतुर्क रागः रतिः प्रेम सेहः, द्वेषः भरतिः अप्रेम इति रागद्वेषयोः कारगं शयनासनादिकं त्यजति, रागद्वेषकारण सत्यादिकमुत्पादादि दोषसहित परिहरति । कीदशो मुनिः । निर्विषयः आत्मविषयेभ्यः पञ्चेन्द्रियार्थेभ्यः अविकान्तः रहितः । आरमा स्वयं वा ।। ४४७ ॥ पूयादिसु जिरबेक्खो संसार-सरीर-भोग-णिविष्णो। अन्तर-तव-कुसलो जवसम-सीलो महासंतो ॥ ४४८॥ जो णिवसेदि मसाणे वण-गहणे णिज्जणे महामीमे । अण्णस्थ वि एचंते तस्स वि एवं तवं होदि ।। ४४९ ॥' [छाया-पूजादिषु निरपेक्षः संसारशरीरभोगनिर्विणः । आभ्यन्तरतपःकुशलः उपशमशीलः महाशान्तः । निवसति श्मयाने वनगहने निर्जने महा मे । अन्यत्र अपि एकान्ते तस्य अपि एतत् सपः भवति ॥ यम्मम् । सखानपारणः इद विविकशयनासनाख्यं तपो भवति । सस्य कस्म । य: मिg: पूजादिषु निरपेक्षः पूजाख्यातिक्योमहिमालाभादिषु निःस्पृहः दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाक्षारूपनिदानरहितः । पुनः कथंभूतः । संसारशरीरभोगनिर्विष्णः, संसारनरनारकादिचतुर्गतिलक्षणः, शरीरं देहः भोगः युवल्यादिसमुद्भवः इन्द्रियविषयोद्भवः द्वन्द्वः तेभ्यः निर्विष्णः विरकाः भागे तीन गाथाओंसे विविक्तशय्यासन नामक तपको कहते हैं। अर्थ-जो मुनि राग और द्वेषको उत्पन करने वाले आसन शय्या वगैरहका परित्याग करता है, अपने आरमस्वरूपमें रमता है और इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त रहता है उसके विविक्त शय्यासन नामका पाँचवा उत्कृष्ट तप होता है ।। भावार्थ-आसन अर्थात् बैठनेका स्थान और शय्या अर्थात सोनेका स्थान तथा 'आदि' शब्दसे मल मूत्र करनेका स्थान ऐसा होना चाहिये जहाँ राग द्वेष उत्पन्न न हो और वीतरागताकी वृद्धि हो । अतः मुनिको विविक्त अर्थात् ऐसे एकान्त स्थानमें धैठना और सोना चाहिये ॥ ४४७॥ अर्थ-अपनी पूजा महिमाको नहीं चाहने बाला, संसार शरीर और भोगोंसे उदासीन, प्रायश्चित्त आदि अम्यन्तर तपमें कुशल, शान्त परिणामी, क्षमाशील महा पराक्रमी जो मुनि स्मशानभूमिमें, गहन वनमें, निर्जन महाभयानक स्थानमें अघदा किसी अन्य एकान्त स्थानमें निवास करता है, उसके विविक्त शय्यासन तप होता है ॥ मावार्थ-भगवती आराधनामें विविक्त शय्यासन तएका निरूपण करते हुए लिखा है-“जिस वसतिकामें मनको प्रिय अथवा अप्रिय लगने वाले शब्द रस रूप गन्ध और स्पर्शके निमित्तसे अशुभ परिणाम नहीं होते तया जहाँ खाध्याय और ध्यानमें बाधा नहीं आती वह वसतिका (निवास स्थान) एकान्त कही जाती है ।" "जिसके द्वार बन्द' हो अथवा खुले हों, जिसकी भूमि सम हो अथवा विषम हो, ग कुशलो। ५स महासतो। ६णिवसेर । मऊ। २४ सग पूजादिनु, म पुजा । ३ भोय। ४ गगरि। ८प एयंत,रूम स जते । ५. युगलं ।

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