Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 489
________________ -४८२] १२. धर्मानुभेक्षा ३४५ वृषभाविवर्धमानान्तेभ्यो नमः ॥ ओं भहन्मुखकमलवासिनि पापात्मक्षयंकर श्रुतज्ञानज्वालासहन प्रज्वलिते सरस्वति मत्पापं हन हन दह दह क्षा क्षीक्षक्षी क्षः क्षीरधवले अमृतसंभवे कई स्वाहा । इयं पापभक्षिणी विद्या । सिद्धचक्रम् । असिआउसा। अवर्ण नाभिकमले, सिमस्तककमले, सा मुखकमले, आ कण्ठकमले, उ हृदये । नमः सर्वसिद्धेभ्यः। ओंकार-हौंकार-अकार-अहम् इत्यादिक स्मरणीयम् । “नेत्रद्वन्द्वे प्रवणयुमले नासिकाग्रे ललाटें, के नाभी शिरसि हृदये तालुनि भूयुगान्ते । ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः कीर्तितान्यत्र वेहे, तेष्वेकस्मिन् विगतविषये चिसमालम्बनीयम् ॥” इति । इति पदस्थध्यानं समाप्तम् ।। अथ पिण्डस्थध्यानमुच्यते । पिण्डस्थभ्याने पक्ष धारणा भवन्ति । ता: काः। पार्थिवी , आग्नेयी २, मारुती ३, बारुणी ४, तात्त्विकी ५ चेति । निरजनस्थाने योगी चिन्तयति । किम् । क्षीरसमुद रजप्रमाणमध्यलोकसमानं शब्दरहितमुपशमितकल्लोलं कर्पूरहारतुषारदुधव दुसनलं स्मरति । तस्य मध्ये जम्बूद्वीपप्रमाणं महसदलकमल सुवर्ण देदीप्यमानं तदुत्पन्नपद्मरागमणिसदशकेसरालीविराजित मनोभ्रमररक्षकं स्मरति । तत्र जम्बूद्वीपप्रमाणसहस्रदलकमले हेमनिमे कनकाचलमयी दिव्यकर्णिका चिन्तयेत् । ततः तत्कर्णिकाया मध्ये शरकालचन्द्रसदृशमुमतं सिंहासनं चिन्तयति । ततः तस्य सिंहासनोपारे आत्मानं सुखासीनं शान्तदान्तरागद्वेषादिरहितं ध्यायेत् पार्षिकी । तप्तोऽसी ध्यानी निजनाभिमण्डले मनोज्ञकमनीयषोडशोन्नतपत्रक कमल, तस्य कमलस्य पन पत्र प्रति वरम्, एवं षोडशखरान् स्मरेत् । सत्कर्णिकाया मध्ये महामन्त्रं विस्फुरन्तम् ऊर्चरेफ कलाबिन्दुसहितं चन्द्रकोटिकानन्या व्याप्तदिग्मुर्ख 'अ' इति चिन्तयेत् । ततस्तस्याहमित्यक्षरस्य रेफात् निर्गन्छन्ती धमशिखा स्मरेत् । ततस्तत्पश्चात स्फलिजयक्तीः चिन्तयेत् । ततः ज्वालावलीम् अग्निज्वालाश्रेणी चिन्तयेत् । ततः तेन ज्वालाकलापेन वर्धमानेन हृदयस्थितं कमलं दहति। तत्कमलमष्टकर्मनिर्माणमाष्टपत्राअम् अधोमुख महामन्त्रोत्पन्नवैश्वानरो दहति । ततः शरीरस्य बहिः त्रिकोणम् अमिमण्डलम् । "वहिनीजसमाकान्त पर्यन्ते स्वस्तिकावितम् । जर्ष वायुपुरोद्भूतं निधूमं कनकप्रभम् ॥" "अन्तर्दहति मनाचिहिहिपुर पुरम् । धगद्धगिति विस्फूर्जज्वालापचयभासुरम् ॥ भस्मभावमसौ नीला शरीरं तच्च पहजम् । दायामानात् स्वयं शान्ति चाहिये। 'ओं अईन्मुखकमलवासिनि पापात्मक्षयंकार श्रुतज्ञानज्वालासहस्रप्रज्वलिते सरस्वति मत्पार्प छन हन दह दह क्षा क्षी क्षौ क्षः क्षौरवरधवले अमृतसंभवे बे व हूं हूँ स्वाहा ।' ये पापभक्षिणी विद्याके अक्षर हैं । सिद्धचक्रमंत्रका भी ध्यान करना चाहिये । असि आ उ सा इन पाँच अक्षरोंमें से 'अकार को नाभिकमलमें, 'सि' अक्षरको मस्तक कमलपर, 'आ' अक्षरको कंठस्थ कमलमें, 'उ' अक्षरको हृदय कमलपर और 'सा' अक्षरको मुखस्य कमलपर चिन्तवन करना चाहिये । 'नमः सर्वसिद्धेभ्यः' यह भी एक मंत्रपद है । इस शरीरमें निर्मल ज्ञानियोंने मुख, नाभि, शिर, हृदय, ताल भूरियोंका मध्य इनको ध्यान करनेके स्थान कहा है । उनमेंसे किसी एकमें चित्तको स्थिर करना चाहिये । इस प्रकार पदस्य ध्यानका वर्णन समाप्त हुआ । अब पिण्डस्थ ध्यानको कहते हैं । पिण्डस्थ ध्यानमें पाँच धारणाएँ होती हैं। पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तात्त्विकी । इनमेंसे पहले पार्थिवी धारणाको कहते हैं । प्रपम ही योगी किसी निर्जन स्थानमै एकराजु प्रमाण मध्य लोकके समान निःशाद निसरंग और कपूर अथवा बरफ या दूधके समान सफ़ेद क्षीरसमुद्रका ध्यान करे । उसमें जम्बूद्वीपके बराबर सुवर्णमय हजार पत्तों वाले कमलका चिन्तन करे । वह कमल पमराममणिके सदृश केसरोंकी पंक्तिसे शोभित हो और मनरूपी भौरेको अनुरक्त करने वाला हो । फिर उस जम्बूद्वीप जितने विस्तार वाले सहस्र दल कमलमें सुमेरुमय. दिव्य कर्णिकाका चिन्तन करे । फिर उस कर्णिकामें शरद् कालके चन्द्रमाके समान वेतवर्णका एक ऊँचा सिंहासन चिन्तन करें । उस सिंहासनपर अपनेको सुखसे बैठा हुआ शान्त, जिसेन्द्रिय और रागद्वेषसे रहित चिन्तवन करे। यह पार्थिवी धारणाका लरूप है। इसके पश्चात् यह ध्यानी पुरुष अपने नाभिमण्डलमें सोलह ऊँचे पोवाले एक मनोहर कमलका

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