Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 427
________________ . -४१४] १२. धर्मानुप्रेक्षा गोत्राणीति पुण्यम्' अभ्राति । कीदृक्षः सन् जीवः । मन्दकषायैः परिणतः अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलनको घमानमायादिकषायेः सह परिणामं गतः । तस्मात्कारणात् पुण्यस्य शुभकर्मणां हेतुः प्रशस्त प्रकृतीनां कारणं मन्दकषाया एवं ताकभागाद्यनुभाग परिणताः तुच्छकषायाः अप्रत्याख्यानादयः पुण्यस्य हेतवः कारणानि भवन्ति इत्यर्थः । हि यस्मात् वाच्छा पुण्यस्य समीश पुष्यकारणं न उ च । इत्युक्तत्वाद्धितान्वेषी कांक्षा कापि न योजयेत्' इति ॥ ४१३ ॥ अथ सम्यत्तत्रम्य निःशङ्कसगुणं गाथाद्वयेन विवृणोति - किं जीव दया धम्मो जण हिंसा कि होदि किं धम्मो । इमादि-संका तदकरणं जाण जिस्संका ॥ ४१४ ॥ ३१३ [ छाया किंवा धर्मः यज्ञे हिंसा अपि भवतेि किं धर्मः । इत्येवमादिशङ्काः तदकरणं जानीहि निःशङ्का ॥ ] इत्युक्तवक्ष्यमाणलक्षणेन एवमादिका एवंप्रकारा शहा संदेहः संशयः । इति किम् । किं जीवदया धर्मः किमित्याक्षेपे, जीवाना स्थावरजङ्गमप्राणिनां दया रक्षणमनुकम्पा धर्मः पृषो भवति । अपि पुनः यज्ञे अश्वगजाजनरमेधगो मेधादिक ऋतौ हिंसा जीववधो धर्मः किम्। न केवलम् अहिंसा धर्मः यज्ञे, अश्वगजगोलागनरबधादिः किं धर्मो भवति यज्ञे । प्रोक्तं च । "ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यश्वः पक्षिणो नराः । यशार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्मुच्छ्रितां गतिम् ॥ गोसवे सुरा हन्यात् राजसूये तु भृभुजम् । अश्वमेधे इयं हन्यात् पौण्डरीके च दन्तिनम् ॥ यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यो हि भूत्यै सर्वेष तस्मा धोऽवधः ॥" तथा यजुर्वेद ऋचयः । 'सोमाय हंसानालभते वायवे बलाका इन्द्राभिभ्यां कुशान् मित्राय महून वरुणाय नकान् ॥ वसुभ्य ऋप्यानालभते स्वेभ्यो रुरुनादित्येभ्यो न्यरून वरुणाय चक्रवाकानश्विभ्यां मयूरान् मित्रावरुणाभ्यां तान् ॥ वसन्ताय कपिअला बालभते श्रीष्माय जलविकान् वर्षाभ्यस्तितिरीष्ठरदे वर्तिका हेमन्ताय ककराछिशिराय विककरान् ॥ इति पऋतुयजनम् । समुद्राय शिशुमारांना लभते पर्जन्याय मण्कानको मत्स्यान् मित्राय कुलीपयान् वरुणाय चक्रवाकान् ॥ भर्मेभ्यो हस्तिदं जवायाश्वयं पुच्ये गोपाल श्री ययाविपाल तेजसेऽजपालमिराबे कीनाश भोगोंका सेवन करता है और उससे वह पुन: नरक आदिमें चला जाता है। किन्तु जो मोक्ष प्राप्तिकी भावना से शुभ कर्मों को करता है वह मन्दकषायी होनेसे सातिशय पुण्यबन्ध तो करता ही है, परम्परा से मोक्षभी प्राप्त कर लेता है। अतः विषय सुखकी चाह से पुण्य कर्म करना निषिद्ध है ॥ ११३ ॥ आगे सम्यक् के आठ अङ्गों में से निःशक्ति अंगका वर्णन दो गाथाओंसे करते हैं । अर्थ-क्या जीवदया धर्म है अथवा यज्ञ में होनेवाली हिंसामें धर्म है, इत्यादि संदेहको शंका कहते हैं । और उसका न करना निःशङ्कां है || भावार्थ- पीछे धर्मका स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि जहां सूक्ष्म हिंसा है वहाँ धर्म नहीं है। अतः अहिंसा धर्म है और हिंसा अधर्म है, इस श्रद्धानका नाम ही सम्यक्त्व हैं, और उस सम्यक्त्वके आठ अंग हैं । उनमें से प्रथम अंग निःशंकित है। निःशंकित का मतलब है, शंकासंदेहका न होना । एक समय भारतमें याज्ञिक धर्मका बहुत जोर था । अश्वमेध, गजमेध, अजमेध, नरमेध, गोमेव, आदि यज्ञ हुआ करते थे । याज्ञिक धर्मके ग्रन्थों में लिखा है- 'औषधियाँ, पशु, वृक्ष, तिर्यश्व, पक्षी और मनुष्य यज्ञके लिये मरकर उच्च गतिको प्राप्त करते हैं [गोसव में सुरभि गौको मारना चाहिये, राजसूय यज्ञमें राजाको मारना चाहिये, अश्वमेघ यज्ञमें घोड़ेको मारना चाहिये, और पुण्डरीक यज्ञ में हाथीको मारना चाहिये ॥ जाने स्वयं यज्ञके लिये ही पशुओंको बनाया है | यज्ञ सबके कल्याण के लिये है । अतः यज्ञमें की जाने वाली हिंसा हिंसा नहीं है ।।] यजु ५ व ग ज । कार्तिके० ४०

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