Book Title: Jinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Author(s): Narendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 10
________________ अपनी बात : सिद्ध पुरुष को श्रद्धांजलि प्राचार्य श्री हस्तीमल जी म. सा. भारतीय सन्त-परम्परा के विशिष्ट ज्ञानी-ध्यानी साधक, संयम साधना के कल्पवृक्ष, उत्कृष्ट क्रियाराधक, सांस्कृतिक चेतना के इतिहासकार, संवेदनशील साहित्यकार और महान् प्रज्ञापुरुष थे। एक वर्ष पूर्व प्रथम वैशाख शुक्ला अष्टमी, रविवार को निमाज (पाली-राजस्थान) में ८१ वर्ष की आयु में तीन दिन की तपस्या (तेला) सहित तेरह दिवसीय संथारापूर्वक उनका समाधिमरण हुआ। संथारा कर आचार्य श्री ने मृत्यु को मंगल महोत्सव में परिणत कर दिया। आचार्य श्री हस्ती श्रमण भगवान महावीर की शासन-परम्परा के ८१वें पट्टधर आचार्य थे । स्थानकवासी परम्परा के महान् क्रियोद्धारक आचार्य श्री रतनचंद जी म. सा. के नाम से प्रसिद्ध रत्नवंश के वे सप्तम आचार्य थे। उनके लिखित गोपनीय दस्तावेज के आधार पर चतुर्विध संघ द्वारा पं० रत्न श्री हीरा मुनिजी अष्टम प्राचार्य और पं० रत्न श्री मान मुनिजी उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किये गये । सम्प्रदाय विशेष के प्राचार्य होते हुए भी वे सम्प्रदायातीत थे। १० वर्ष की लघु अवस्था में दीक्षित होकर, २० वर्ष की अवस्था में प्राचार्य बनकर, ६१ वर्ष तक आचार्य पद का सफलतापूर्वक निर्वाह करने वाले वर्तमान युग के वे एकमात्र प्राचार्य थे। आचार्य हस्ती एक व्यक्ति नहीं, एक संस्था नहीं, मात्र आचार्य नहीं वरन् सम्पूर्ण युग थे। यूग की विषम, भयावह, रूढिबद्ध अन्ध मान्यताओं से ग्रस्त परिस्थितियों को उन्होंने बड़ी बारीकी से देखा, समझा और इस संकल्प के साथ वे दीक्षित हुए कि मैं जीवन को दुःखरहित, समाज को रूढ़िमुक्त और विश्व को समता व शांतिमय बनाने में अपने पुरुषार्थ-पराक्रम को प्रकट करूँगा। और सचमुच आचार्य श्री ने विविध उपसर्ग और परीषह सहन करते हुए जीवनपर्यन्त यही किया। आचार्य श्री ने अनुभव किया कि लोगों में पूजा, उपासना, धर्म-क्रियाओं/ अनुष्ठानों के प्रति रुचि, आकर्षण और उत्साह तो है पर तदनुरूप आचरण और जीवन में रूपान्तरण नहीं परिलक्षित होता। इसका कारण है धर्म-क्रिया को रूढ़ि रूप में पालना, फैशन के रूप में उसे निभाना । धर्म पोशाक नहीं, प्राण बने, वह मतमतान्तरों और सम्प्रदायवाद से नहीं वरन् मानवीय सवत्तियों और जीवन-मूल्यों से जुड़े, अतीत और अनागत का दर्शन न बनकर वर्तमान जीवन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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