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ताप से जलती हुई आत्माओं को विश्राम के लिए श्राश्रयस्थान हैं । कर्म तथा मोह के आक्रमण से व्यथित हृदयों को आराम देने के लिए संरोहिणी औषधि हैं । आपत्तिरूपी पहाड़ी पर्वतों में घटादार छायादार वृक्ष हैं । दुःखरूपी जलते दावानल में शीतल हिमकूट हैं । संसाररूपी खारे सागर में मीठे झरने हैं । सन्तों के जीवन प्राण हैं । दुर्जनों के लिये अमोघ शासन हैं । अतीत की पवित्र स्मृति हैं । वर्त्तमान के आत्मिक विलास भवन हैं । भविष्य का भोजन हैं । स्वर्ग की सीढ़ी हैं । मोक्ष के स्तम्भ हैं । नरक मार्ग में तिर्यंचगति के द्वारों के विरुद्ध शक्तिशाली अर्गला हैं ।"
दुर्गम पहाड़ हैं तथा
जिनचैत्यों - जिनमन्दिरों के शाश्वत और प्रशाश्वत दो विभाग, शास्त्रों में प्रतिपादित किये गये हैं । इसी तरह जिनमूर्तियों - जिनप्रतिमानों के भी शाश्वती और प्रशाश्वती दो विभाग प्रतिपादित किये हैं । विद्वान् श्रीजीवविजयजी महाराज द्वारा गुर्जर भाषा में 'सकलतीर्थवन्दना' नामक स्तोत्र रचा गया है । 'श्री तीर्थवन्दना सूत्र' रूप में उसकी प्रसिद्धि है । प्रतिदिन प्रातः राइय प्रतिक्रमण में चतुर्विध संघ [ साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ] उसे बोलकर तीनों लोकों में रहे हुए शाश्वत - प्रशाश्वत जिनचैत्यों की एवं जिनमूर्तियों की वन्दना करते हैं ।