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प्रभु के चरणों की अनुपम सेवा-भक्ति प्रष्टप्रकारी पूजा इत्यादि कार्य करते हुए होती है । पूजा का निमित्त पाकर प्रभु के समीप में जा सकते हैं और प्रभु की अनुपम सेवा-भक्ति का सुन्दर लाभ ले सकते हैं । जैसे - अपने माता, पिता तथा वडीलों आदि की सेवा-भक्ति करने से अपन को उनका आशीर्वाद मिलता है । राजामहाराजा, प्रधानमन्त्री तथा श्रेष्ठी वगैरह की भी सेवा करने से वे सभी प्रसन्न होते हैं; वैसे ही साक्षात् प्रभु के प्रभाव में उनकी मूर्ति प्रतिमा की सेवा-भक्ति करने से अपने चित्त-मन की प्रसन्नता होती है । प्रभु का दास, प्रभु का सेवक, प्रभु का चाकर, प्रभु का नौकर तथा प्रभु का भक्त बनना यह तो अपना प्रबल पुण्योदय हो तो ही यह लाभ मिल सकता है ।
इसके सम्बन्ध में 'भक्तामर स्तोत्र' के कर्त्ता श्री मानतु गसूरीश्वर जी महाराज ने कहा है कि
लोको सेवे कदि धनिकने तो धनी जेम थाय । सेवा यातां प्रभुपद तणी श्राप जेवा ज थाय ॥ श्री कबीर जी ने भी कहा है कि
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दास कहावन कठिन है, मैं दासन को दास अब तो ऐसा हो रहूँ, कि पाँव तले की घास ।