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( ७० ) है। वह द्रव्यपूजा सम्यक्शास्त्रानुसार विनय और विवेकयुक्त विधिपूर्वक ही करनी चाहिए। इसलिए जिनमूर्ति की जलचन्दनादि द्वारा अष्टप्रकारी पूजा आदि का विधान जैन आगमशास्त्र में आज भी विद्यमान है । देखिये
(१) श्रीज्ञातासूत्र में-'सती द्रौपदी ने सम्यक्त्व पाने के पश्चात् प्रभुमूत्ति की पूजा की थी।'
(२) श्रीरायपसेरणी सूत्र में प्रदेशी राजा के सम्यक्त्व युक्त जीव ने अवती होते हुए भी प्रभुमूत्ति की पूजा की थी।
(३) श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्र में-पास्रवद्वार और संवरद्वार का वर्णन आता है, जिसमें मूर्तिपूजा को संवरद्वार में माना है, प्रास्रवद्वार में नहीं।
(४) श्रीप्रावश्यक सूत्र में कहा है कि-'कित्तिय वंविन महिना' अर्थात्-श्रीजिनेश्वर भगवान-तीर्थकर परमात्मा कीर्तन करने के योग्य हैं, वन्दन करने के योग्य हैं तथा द्रव्य और भाव से पूजन करने के योग्य हैं। ___ इसी तरह इतर धर्मों में भी मूर्तिपूजा के अनेक प्रमाण मौजूद हैं।