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( ७७ ) ऐसे 'जिन' को भवोदधितारक मोक्षदायक वीतराग देवाधिदेव एवं परम पूज्य मानने वाले और उनके द्वारा प्ररूपित सद्धर्म को सानंद सोत्साह स्वीकारने वाले पाचरण करने वाले 'जैन' कहलाते हैं ।
अरिहन्तादि पाँच को 'पंचपरमेष्ठी' अर्थात् पाँच परम इष्ट मानते हैं।
उनकी सम्यक् आराधना नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों से की जाती है; अर्थात् नामस्मरण, दर्शन, वन्दन एवं पूजन इत्यादिक से होती है। जिसके सर्वोत्कृष्ट पालम्बन से अपनी प्रात्मा संयमादि द्वारा इस असार संसार के आवागमन से मुक्त हो जाती है और मोक्ष के शाश्वत सुख को प्राप्त करती है ।
इस विश्व पर अनन्त उपकार अरिहन्त परमात्मा का है। इनके ही अनुपम प्रभाव से दस दृष्टान्त से दुर्लभ ऐसा मनुष्यभव, प्रार्यक्षेत्र, उत्तमकुल, उत्तमजाति-सद्धर्म और उत्तम साधन हुए हैं।
इन्होंने विश्व के आवागमन से अपनी आत्मा को कर्म से मुक्त होने का सन्मार्ग बताया है ।