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(८) पालम्बन त्रिक-जिनमूत्ति का, जो शब्द बोलते हैं उनका और उनके अर्थ का पालम्बन लेकर चित्त उसी में स्थिर रखना। ये ही पालम्बन त्रिक हैं ।
अर्थात् चैत्यवन्दन करते समय अपने मन, वचन और काया के योग अप्रशस्त भावों में न चले जायें, उनका ध्यान रखने के लिए यह पालम्बन त्रिक कहा है। इनके द्वारा मन-वचन-काया के योग को स्थिर करके भगवान के भक्ति-योग में तदाकार हो जाना चाहिए।
(६) मुद्रात्रिक-मुद्रा यानी अभिनय करना। विविध प्रकार की मुद्राओं का विधान जैनशास्त्रों में किया गया है। प्रभु की अंजनशलाका-प्राणप्रतिष्ठा में योग आदि विधियों में, मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र आदि साधनामों में तथा धार्मिक पूजा-पूजना चैत्यवन्दन-देववन्दन-सामायिकप्रतिक्रमण एवं आवश्यक आदि क्रियाओं में भिन्न-भिन्न अनेक प्रकार की मुद्राएँ अवश्य करनी पड़ती हैं । __ तथा भिन्न-भिन्न सूत्रों का उच्चारण करते समय भी शरीर की मुद्राएँ परिवर्तित करनी पड़ती हैं । __ प्रस्तुत चैत्यवन्दन आदि विधि में योगमुद्रा, मुक्ताशुक्तिमुद्रा एवं जिनमुद्रा पाती हैं। इस मुद्रा त्रिक की तीनों प्रशस्त मुद्राएँ निम्नलिखित प्रमाणे हैं।