________________
( ६८ ) हमारे आत्मबल को और प्रात्मतेज को विकसित करने वाले ऐसे जिनमंदिर में, जिनचैत्य में जिनालय में जाने की भावना अहर्निश रहनी चाहिए। 'चलो जिनमंदिर चलें' यही वाक्य हृदय मन्दिर में अवश्य जागृत रहना चाहिए। तथा त्रिकाल अपने मस्तिष्क में गूंजना चाहिए। जिनमंदिर चलने की, जिनदर्शन की और जिनपूजन की विधि में सक्रिय बनना चाहिए ।
वीतराग श्रीजिनेश्वर देव के दर्शन एवं पूजन-पूजातथा भक्ति आदि से आत्मा के ताप, संताप और पाप इन तीनों का विनाश होता है। उपसर्ग एवं उपद्रव उपशान्त हो जाते हैं। विघ्न की बेलड़ियाँ छेदी जाती हैं। मन प्रसन्न हो जाता है और परम परमात्मा का अनुभव करता है। दुःख, दर्द, रोग, रंज, अशाता एवं अशान्ति सब दूर हो जाते हैं। तथा आत्मा सुख, शान्ति, आनन्द एवं प्रारोग्य प्राप्त करता है, इतना ही नहीं किन्तु सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र द्वारा यही प्रात्मा अन्तिम समाधिपूर्वक सकल कर्म का सर्वथा क्षय कर शाश्वत सुख-सचिदानन्दस्वरूप में मग्न-लीन हो जाता है। तथा सादि अनंत स्थिति में सर्वदा सिद्ध भगवन्तों के साथ मोक्षस्थान में निवास
करता है।