Book Title: Jal Yatradi Vidhi
Author(s): Ratnashekharsuri
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 40
________________ (३ए) एवी रीतनी स्तुति करीने दीपकमां घी पूरीने पाने पगे हतो थको, तथा नमस्कार करतो थको बहार आवे; पड़ी जिनमंदिरनां छारने बंध करीने, तालु मारे, तथा ते ताळु प्रजातसुधि उघाडे नहीं; पली त्यां आखी रात जागरण करे; पडी प्रजाते घ. रनो धणी श्रीफल तथा रुपी लईने ते देवमंदिर उघाडे, तथा ते श्रीफल अने रुपीयो नेट करे, तथा तंमुलनी वृष्टि करे, पळी ते जतनापूर्वक नपानीने, ज्यां को 3ळंगे नहीं, एवी जगोए परउववा पनी देहेरे श्रावी अष्टप्रकारी पूजा करवी, तथा कुटुंबने हर्षनुं जमण जमामी रजा आपवी, वली वरस दहामा परी ज्यारे तेज दिवस आवे, त्यारे विशेष पूजा करवी, तथा रात्रिजागरण करवं, एवी रीतें श्रीजिनचैत्यबिंबप्रवेशनो विधि जाणवो. हवे अष्टोत्तरी स्नात्रनो विधि कहे ले था अष्टोत्तरी स्नात्रनो विधि जीर्णकल्प, प्रतिष्टाकल्प, तथा समाचारी ग्रंथ इत्यादिने अनुसारें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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