Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 8
________________ है और कई ग्रन्थों का खड़ी बोली में रूपान्तर होकर प्रकाशन भी हो गया है । आज 'जैनतश्वप्रकाश' भी पाठकों के कर कमलों में पहुँच रहा है । आशा है आचार्य ' महाराज का शेषं साहित्य भी नूतन शैली से सम्पादित और परिमार्जित होकर पाठकों के सामने आएगा । पं० मुनिश्री कल्याणऋषिजी महाराज जैनधर्म की प्रभावना में जो महान् योग दे रहे हैं, वास्तव में वह स्तुत्य है । मुनिश्री मुलतानऋषिजी महाराज तथा महासतीजी श्री शायर कुंवरजी म० का उन्हें जो सहयोग प्राप्त है, उसकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती । इसी प्रकार पर श्री अमोल जैन ज्ञानालय, धूलिया (पू० खानदेश) के उत्साहशील कार्यकर्त्ताओं को भी नहीं भुलाया जा सकता । वे आचार्यश्री के साहित्य के प्रकाशन में जो दिलचस्पी दिखला रहे हैं, उसके लिए समाज उनका चिर कृतज्ञ रहेगा । आज सारा समाज हिन्दी अनुवाद वाली बत्तीसी के लिए तरस रहा है । कितने खेद की बात है कि हमारे मूल धर्मशास्त्र भी आज राष्ट्रभाषा में पूरे नहीं उपलब्ध हैं ? प्राचार्यश्री के अनुवाद की बत्तीसी भी आज सुलभ नहीं है । उसका दूसरा संस्करण निकालने की नितान्त आवश्यकता है । कान्फरेंस की तरफ से ऐसा आयोजन किया गया था, परन्तु पता नहीं क्यों वह बीच ही में रुक गया ! क्या ही अच्छा हो, यदि श्रीश्रमोल जैन ज्ञानालय के विवेकी अधिकारी श्राचार्य महाराज कृत बत्तीसी का दूसरा संस्करण प्रकाशित करने का प्रयास करें। ऐसा करने से श्राचार्य महाराज की कीर्त्ति भी चिरस्थायिनी हो जायगी और जनता का भी असीम लाभ होगा । 'जैनतस्वप्रकाश' की यह पाँचवीं श्रावृत्ति है। गुजराती संस्करणों को भी गिन लिया जाय तो आठवीं श्रावृत्ति कहलाएगी । इतने बड़े ग्रन्थ की इतनी श्रावृत्तियाँ हो जाना इसकी सर्वप्रियता का प्रबल प्रमाण है । प्रस्तुत आवृत्ति में ग्रन्थ की भाषा को आधुनिक रूप में ढालने का प्रयत्न किया गया है, अतएव इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। आशा है यह

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