Book Title: Jain Tattva Prakash Author(s): Amolakrushi Maharaj Publisher: Amol Jain Gyanalaya View full book textPage 7
________________ जो अनमोल खजाना मिला है, उसे हम वणिक की तरह दबाये छिपाये बैठे हैं | दुनिया के आगे लुटाते नहीं हैं ! हमारी यह दुर्बलता ही जैनधर्म की महिमा के विस्तार में बाधक है ! हमारी निश्चित धारणा है कि आज का युग जैनधर्म के शुद्ध एवं मौलिक स्वरूप के प्रवार के लिए अतीव उपयोगी है। ऐसे अवसर पर हमें अपने साहित्य के प्रचार में कोई कसर नहीं रखनी चाहिए। आज जनता में पहले जैसी धार्मिक संकीर्णता नहीं है: सत्य की गवेषणा करने की वृत्ति भी है। जैनधर्म के प्रचार के लिए ऐसा ही अवसर तो चाहिए । 1 मेरे खयाल से, वर्त्तमान युग की प्रवृत्ति को ठीक रूप में जिन्होंने समझा, उनमें बालब्रह्मचारी जैनाचार्य श्री अमोलकऋपिजी महाराज का स्थान बहुत ऊँचा है | आचार्य महाराज का जीवन परिचय अन्यत्र दिया जा रहा है । उसे पढ़ने से स्पष्ट ज्ञात होगा कि इस महान् आचार्य सन्त ने अपने जीवन में अद्भुत कार्य कर दिखलाया है । साधु अपनी चर्या के अनुसार रात्रि में साहित्य - निर्माण का कार्य नहीं कर सकते । दिन में भी आवश्यक क्रिया, गोचरी आदि में उन्हें पर्याप्त समय लगाना पड़ता है । फिर भी आचार्यश्री ने स्वल्प काल में जिस विपुल साहित्य की रचना की है, उसे देखकर चकित रह जाना पड़ता है । वे कितनी शीघ्र गति से साहित्य-सृजन कर सकते थे, इस बात का अनुमान इसी ग्रन्थ से लगाया जा सकता है । यह विशालकाय ग्रन्थ सिर्फ तीन महीने में सम्पूर्ण किया गया था । बत्तीस शास्त्रों का अनुवाद सिर्फ तीन वर्ष में पूर्ण कर दिया था ! आचार्यश्री द्वारा विनिर्मित ग्रन्थों की प्रचुर संख्या को देखते हुए मुँह से सहसा निकल पड़ता है- धन्य, धन्य महाभाग ! आचार्यश्री अमोलक ऋषिजी महाराज संतों के ढंग की भाषा लिखते थे । उसमें सरलता और मधुरता सर्वत्र व्याप्त है । उसे बिलकुल आधुनिक ढंग में ढालने की आवश्यकता है, जिससे सब लोग अनायास ही लाभ उठा सकें। हर्ष का विषय है कि श्राचार्यश्री के सुविनीत और सुपण्डित शिष्य मुनिश्री कल्याण ऋषिजी महाराज का ध्यान इस ओर आकर्षित हुयाPage Navigation
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