Book Title: Jain Tattva Darshan Part 05
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 14
________________ ।। 3 || जिहां पंच समिति युत, पंच महाव्रत सार, जेहमां परकाश्या, वली पांचे व्यवहार । परमेष्ठि अरिहंत, नाथ सर्वज्ञने पार, एह पंच पदे लहयो, आगम अर्थ उदार मातंग सिद्धाइ, देवी जिनपद सेवी, दु:ख दुरित उपद्रव, जे टाले नित मेवी। शासन सुखदायी, आइ सुणो अरदास श्री ज्ञान विमल गुण, पूरो वांछित आश ।। 4 || F. (अ) आप स्वभाव की सज्झाय आप स्वभावमां रे, अवधू सदा मगन में रहना, जगतजीव है कर्माधीना, अचरिज कछुअ न लीना आप..... || 1 || तुम नहीं केरा, कोई नहीं तेरा, क्या करे मेरा मेरा, तेरा हे सो तेरी पासे, अवर सब हे अनेरा आप..... || 2 || वपु विनाशी, तुं अविनाशी, अब हे इनका विलासी, वपु संग जब दूर निकासी, तब तुम शिव का वासी आप..... || 3 || राग ने रीसा दोय खवीसा, ए तुम दु:ख का दीसा, जब तुम उनकुं दूर करीसा, तब तुम जग का इसा आप..... || 4 || पर की आशा सदा निराशा, ये हे जगजनपासा, ते काटनकुं करो अभ्यासा, लहो सदा सुखवासा आप..... || 5 || कबहीक काजी कबहीक पाजी, कबहीक हुआ अपभ्राजी , कबहीक जग में कीर्ति गाजी, सब पुद्गलकी बाजी आप..... || 6 || शुद्ध उपयोग ने समता धारी, ज्ञान ध्यान मनोहारी, कर्म कलंककुं दूर निवारी, जीव वरे शिवनारी आप..... || 7 ||

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