Book Title: Jain Tattva Darshan Part 05
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 79
________________ हमें सुख हो या दुःख, दोनों ही परिस्थितियों में प्रसन्न ही रहना चाहिये ना सुख में खुशी और ना ही गम में दुखी होना। अनुकूलता में सुखी एवं प्रतिकुलता से दुःखी होनेवाली आत्मा, अपनी आत्मा का भव भ्रमण बढ़ाती है । 16. पर परिवाद - दूसरों की बुराई करना और खुद का बढ़ा-चढ़ाकर बोलना। पर परिवाद् 16 दूसरों के विषय में गलत बोलना वह पर परिवाद है। लेकिन जो सत्पुरुष होते हैं वे स्वयं के दोष को प्रकट करते हैं। उन्हें देखकर दूर करने की कोशिश करते हैं। और दूसरों के दोषों के प्रति उपेक्षा भाव रखते हैं। क्योंकि 'स्वयं की प्रशंसा' और 'पर निन्दा' जैसा कोई पाप नहीं । छल, धोखे के साथ झूठ बोलना । 17. माया मृषावाद उदा.- महाभारत की लडाई में कृष्ण द्वारा कहा गया शब्द 'अश्वथामा मारा गया”। - कपट, छल आदि को करने के लिए, दूसरों को ठगने के लिए जो झूठ बोला जाता है वह माया मृषावाद नामक पापस्थानक है। पांडवों को जलाने के लिए बनाया गया लाक्षागृहइसी का उदाहरण है। 18. मिथ्यात्व शल्य - झूठा ज्ञान होना परमात्मा के बताये गये तत्वों के स्वरूप को सच्चा न मानकर अन्य पदार्थों पर विश्वास रखना। सुदेव (अरिहंत, सिद्ध) सुगुरु (पंच महाव्रत धारी जैन साधु) और सुधर्म (जैन धर्म) इन पर श्रद्धा न होना वह मिथ्यात्व । और 'शल्य' यानि कांटा क्योंकि जब तक मिथ्यात्व रूपी कांटा हमारे जीवन में रहेगा हमें सच्चा ज्ञान नहीं मिल सकता। मिथ्यात्व ही सब पापों की जड़ है। प्रभु आदिनाथ के पौत्र मरिचि के संसार वृद्धि का मूल कारण यही था । 17 73 मायामृषावाद 18 मिथ्यादर्शनशल्य उपरोक्त अठारह पापस्थानकों को हमें मन, वचन एवं काया से त्याग करना चाहिए। यथा शक्ति इनके सेवन से बचकर जीवनयापन करना चाहिये। ऐसा करने से पाप कर्मों से बच सकते हैं।

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