Book Title: Jain Tattva Darshan Part 05
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 96
________________ देवणी की परस्पर शादी हो गयी । कैसी विचित्र स्थिति है कर्म की ? एक बार माता और पुत्र का संबंध था, अब वह मिटकर पति-पत्नि का संबंध हो गया। एक दिन अरूणदेव मित्र के साथ समुद्रपथ से जहाज में रवाना हुआ। परन्तु अशुभ कर्म के योग से जहाज टूट गया । सद्भाग्य से दोनों को एक लकड़ी का तख्ता मिल गया । उसके सहारे तेरते-तैरते वे दोनों किनारे पर आ गये । वहां से आगे चल कर पाटलीपुत्र नगर के पास पहुंचे । मित्र ने कहा- अरूणदेव! तेरा ससुराल इस गाँव में हैं। हम हैरान-परेशान हो चुके हैं । चलो हम तुम्हारे ससुर के घर चलें । अरूणदेव रे कहा-इस दरिद्रावस्था में मैं वहां कैसे जाऊं? मित्र ने कहा- कि तू यहां बैठ । मैं वहां जाकर आ जाता हूं। मित्र गाँव में गया । अरूणदेव एक देव मन्दिर में निद्राधीन हो गया। समुद्र में तैरने के कारण थकावट से शीघ्र ही खरटि भरने लगा । इतने में देवणी अलंकृत होकर उपवन में आयी । वहां किसी चोर ने तलवार से उसकी कलाई काट कर कंकण ले लिए और भाग गया । देवणी ने शोरगुल मचाया । सिपाही चोर के पीछे लग गये। छिपने या भागने की जगह न होने के कारण चोर देव-मंदिर घुस गया और अरूणदेव के पास रक्तरंजित तलवार और कंकण रखकर भाग गया। पीछा करने वाले सिपाही अरूणदेव के पास आए और चारी का माल उसके पास देखकर, उसे पकड़ा और मारा । बाद में सिपाही उसे राजा के पास ले गए । इस प्रकार दिन दहाड़े कलाई काटने वाला जानकर राजा ने अरूणदेव को शूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया । जल्लादों ने उसे शूली पर चढ़ा दिया । इधर मित्र भोजन आदि लेकर आया । पूछ-ताछ करने पर मालूम हुआ कि अरूणदेव को तो शूली पर चढ़ा दिया गया है । जसादित्य को इस बात का पता चलने पर वह भी वहाँ पर आया और अपने दामाद को इस प्रकार शूली पर चढ़ाया गया है। यह सर्व वृत्तांत जानकर उसे लगा कि यह बहुत बड़ा नष्ट हुआ है । यह विचारकर वह राजा के पास गया और कहा कि " हे राजन्! ये तो मेरे जमाईराजा हैं। वे तख्ते के सारे समुद्र से बचकर आये हुए हैं। अतः मेरी पुत्री की कलाई किसी और ठग ने काटी होगी।" जसादित्य द्वारा इस प्रकार सुनकर राजा ने शूली पर से अरूनदेव को उतरवा दिया । अनेक उपचारों से उसे स्वस्थ किया । अन्त में अरूणदेव और देवणी दोनों अनशन करके देवलोक में गये । इस प्रकार क्रोधी वचनों की आलोचना न लेने के कारण अनन्तर भव में चंद्रा के जीव को कलाई कटवानी पड़ी और अरूण देव को शूली पर चढ़ाना पड़ा । अतः क्रोधादि कषायों की भी आलोचना लेनी चाहिये । F. नमो नमो खंधक महामुनि जितशत्रु राजा और धारिणी के पुत्र खंधक कुमार पूर्वभव में चीभड़ी की छाल निकालकर खुश हुआ था कि “कितनी सुंदर छाल उतारी है?" इस प्रकार छाल उतारने का कर्मबंध हो गया । उसके पश्चात् उसकी आलोचना नहीं ली । क्रम से राजकुमार खंधक बने । फिर धर्मघोष मुनि की देशना सुनकर राज्यवैभव छोड़कर संयम लिया । राजकुमार में से खंधक मुनि बने । चारित्र लेने के पश्चात् बेले-तेले वगेरे कठोर तपश्चया कर काया को कृश दिया । एक दिन विहार करते-करते खंधक मुनि सांसारिक बहन I 90

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