Book Title: Jain Tattva Darshan Part 05
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 77
________________ मान माया मान - गर्व, घमंड, अहंकार मान से विनय गुण का नाश होता है। विनय के बिना शिक्षा प्राप्त नहीं होती और ज्ञान के अभाव में जीवन प्रगति नहीं कर सकता। उसका कुछ समय बाद पतन निश्चित होता है। जैसे दुर्योधन, रावण और कंस, वगैरह । माया - छल, कपट, धोखा माया यानि कपट, धोखा आदि करने से हमारे जीवन में सरलता नहीं रहती। और सरलता बिना धर्म नहीं टिक सकता। और धर्म के बिना मनुष्य का जीवन पशु समान होता है। माया के पीछे जीव कई अन्य पापों का भी बंध करता है। इस माया के कारण ही तीर्थंकर को भी नारी मल्लि के रूप में जन्म लेना पड़ा। 9. लोभ - तृष्णा, लालच धन, वैभव, सत्ता, अधिकार, राज्य आदि को पाने की प्रबल कामना। इसके पीछे जीव अपने कार्य और अकार्य का आभास भूल जाता है। उसे किसी भी लोभ इच्छा के पूर्ण होने पर संतोष नहीं होता। और अधिक से अधिक प्राप्त करने की लालसा में जीव पापों को बाँधता है। यह लोभ तो सभी सद्गुणों का नाश करता है। जैसे मम्मण शेठ। 6,7,8,9 = क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारो कषाय है। जो जीव को अपने मूल स्वरूप से भटकाकर संसार को बढ़ाते हैं। ये पाप उपार्जन के मूल कारण है। 10. राग - प्रेम किसी भी व्यक्ति या वस्तु के प्रति अत्यंत आकर्षण होना। किसी भी गलत सिद्धांत को भी अच्छा मानना और स्त्री, पुत्र, पुत्री आदि के प्रति आसक्ति (प्रेम भाव) रखना वह राग है। जैसे रावण को सीता के प्रति राग, जैसे देवानंदा को पूर्वभव में हार के प्रति राग, उनके दुःख का कारण बना। परन्तु श्री गौतमस्वामी प्रभु वीर के पक्के रागी थे, उनका यह राग ही उनके केवल्य प्राप्ति में अवरोधक बना था। यह प्रशस्त राग होने के कारण गलत नहीं था। शुरूआत में धर्म एवं धर्मी का राग आत्मा के विकास का कारण बनता है। 11. द्वेष – तिरस्कार जो बिल्कुल ही अच्छा न लगे, उसका एकदम घमंड से या गुस्से से तिरस्कार करना। दूसरों के गुणों को या धन संपत्ति को देखकर जलना और उसका बुरा करना या बुरा सोचना वह द्वेष नाम का पापस्थानक है। इसका उदाहरण है - 11

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