Book Title: Jain Tattva Darshan Part 05
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 69
________________ जीव को संसार से पार उतरने में नवतत्त्व का ज्ञान अति आवश्यक एवं उपयोगी है। नवतत्त्वों के नाम, व्याख्या एवं भेद : नौ तत्त्व - पदार्थ के स्वरूप | तत्त्व के नाम भेद | व्याख्या 1. जीव | 14 जो जीता है, प्राणों को धारण करता है, जिसमें चेतना है, वह जीव है; यथा मानव, पशु, पक्षी आदि। 2. अजीव 14 | जिसमें जीव, प्राण, चेतना नहीं है, वह अजीव है, यथा टेबल, पलंग, धर्मास्तिकाय आदि। 3. पुण्य | 42| शुभ कर्म पुण्य है अर्थात् जिसके द्वारा जीव को सुख का अनुभव होता है, वह पुण्य है। 4. पाप 82 | अशुभ कर्म पाप है अर्थात् जिसके द्वारा जीव को दु:ख का अनुभव होता है, वह पाप है। 5. आश्रव ___42 | कर्म के आने का रास्ता अर्थात् कर्म बंध के हेतुओं को आश्रव कहते हैं। 6. संवर 57 | आते हुए कर्मों को रोकना, वह संवर है। 7. निर्जरा 12 | कर्मों का अंशत: क्षय होना, वह निर्जरा है। 8. बंध | 4 | आत्मा और कर्मों का दूध और पानी की तरह संबंध होना वह बंध है। 9. मोक्ष | 9 | संपूर्ण कर्मों का नाश या आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रगटीकरण होना वह मोक्ष है। | कुलभेद | 276 प्रश्न : नवतत्त्वों को समझकर क्या करना चाहिए ? नवतत्त्वों को समझकर उसमें से छोड़ने योग्य को छोड़ना, ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करना एवं जानने योग्य को जानना । वे इस प्रकार : ज्ञेयादि का स्वरूप नाम व्याख्या तत्त्व भेद ज्ञेय जानने योग्य तत्त्व जीव, अजीव 28 हेय छोड़ने योग्य तत्त्व पाप, आश्रव, बंध 120 उपादेय ग्रहण करने योग्य तत्त्व पुण्य, संवर, निर्जरा, मोक्ष 128 कुल 276 हेय = छोड़ने योग्य तत्त्व = पाप, आश्रव, बंध तथा पापानुबंधि पुण्य ये सब छोड़ने जैसे हैं। इनसे अपनी आत्मा मलीन बनती है।

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