Book Title: Jain Tattva Darshan Part 05
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 18
________________ अंगुल से कुछ कम अन्तर रखना । दोनों हाथ लटकते हुए रखना तथा अपनी दृष्टि जिन प्रतिमाजी की तरफ या स्वयं की नाक पर रखना यह जिन मुद्रा है। (इ) मुक्ता शुक्ति मुद्रा : 'जावंति चेइआइं, जावंत केवि साहू' और 'जय वीयराय' सूत्र, (आभवमखंडा तक) बोलते समय दोनों हाथ ललाट पर रखना । दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में मिलाना और हाथ के अंदर का भाग मोती के सीप की तरह पोला रखना। यह मुक्ता शुक्ति मुद्रा है। 10. प्रणिधान त्रिक : मंदिरजी में जिन भक्ति करते समय मन, वचन और काया की एकाग्रता रखना प्रणिधान त्रिक कहलाता है। B. पूजा सम्बन्धी उपयोग (1) फण को प्रभु का शिखा रूप अंग समझकर शिखा पूजा के साथ ही अनामिका अंगुली से पूजा करना उचित है और न करे तो भी दोष नही हैं। (2) लंछन एवं अष्ट मंगल की पूजा नहीं करना। (3) (4) सिद्धचक्रजी की पूजा के बाद भी अरिहंत की पूजा कर सकते हैं। (5) देवी-देवता अपने साधर्मिक होने से उनको अंगुठे से सिर्फ ललाट पर ही तिलक करें, प्रणाम करें। परन्तु वंदन, खमासमण व चैत्यवंदन न करें । परमात्मा के परिकर में रहे हुए देवी देवता की भी पूजा न करे । ( 6 ) (7) मुखकोश गम्भारे के बाहर ही नाक तक बांधकर, फिर निसीहि बोलकर गंभारे में प्रवेश करना । भाईयों को परमात्मा की पूजा धोती एवं खेस पहनकर, खेस से ही मुख बांधकर पूजा करनी एवं बहनें कम से कम 15 वर्ष के ऊपर हो जाये तो साड़ी पहनकर सिर ढंककर पूजा करें। (8) पुरुष परमात्मा के दायी (राईट) और स्त्री बायी (लेफ्ट) तरफ खड़े रहकर स्तुति, पूजा, दर्शन वगैरह करे । (9) गंभारे में मौन रहें, दोहे मन में बोले एवं स्तवन, स्तुति अकेले बोले तो धीरे-धीरे मधुर स्वर से बोलें। ( 10 ) चैत्यवंदन में स्तवन, स्तुति मध्यम स्वर में बोले, जिनसे दूसरों को अंतराय न I (11) प्रभु के विनय हेतु फल-फूल आदि पूजन सामग्री मंदिर में लेकर जाना, खाली हाथ नहीं जाना। लेकिन अपने खाने की वस्तु नहीं लेकर जाना। (12) प्रभु को अपने हाथ में बंधी रक्षा पोटली, ब्रासलेट, चूडियाँ, खेस, साड़ी जैसी कोई भी वस्तु न छुओं उसका विवेक रखें । (13) प्रभु के साईड में खडे रहकर पूजा करें, जिससे औरो को दर्शन में अंतराय न हो। 16

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