Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Professor and Others
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 10
________________ १४० भास्कर [भाग. मिश्रमार्गावलम्बी एवं केरलसम्प्रदाय-प्रधान है। वैदिक मतावलम्बी मान्त्रिक मंत्र की उत्पत्ति शिव जी से मानकर वेदागम को शैवागम भी कहते हैं। मंत्रशास्त्र के सम्प्रदायों को चक्रपूजा भी मान्य है। जैनों के काश्मीर सम्प्रदाय में सिद्धचक, केरल सम्प्रदाय में श्रीचक्र एवं गौड सम्प्रदाय में भैरवचक्र की पूजा की जाती है। मंत्रदीक्षा-गुरु के निकट शास्त्रोक्त विधि से मंत्र लेने को मंत्रदोक्षा कहते हैं। जिस सम्प्रदाय की विधि से दीक्षा ली गई हो उसी के अनुकूल साधना करने से मंत्र सिद्ध होता है। मंत्रपीठिका-मंत्रशास्त्र में निम्नाङ्कित चार पीठिकाओं का वर्णन मिलता है :(१) श्मशानपीठ (२) शवमीठ (३) अरण्यपीठ (४) श्यामापीठ। मंत्र सिद्धि में पीठिका का होना भी परमावश्यक है। (१) श्मशान-पीट–श्मशान पीठ उसे कहते हैं जिसमें भयानक श्मशान में प्रतिदिन रात्रि में जाकर यथाविधि मंत्र का जप किया जाता है। विवक्षित मंत्र-सिद्धि का काल शास्त्र में जितने समय का बतलाया गया हो उतने समय तक नियम से उस श्मशान में जाकर शास्त्रोक्त विधि से मंत्र सिद्ध करना आवश्यक है। भीरु साधक से यह साधना सम्पन्न होना नितान्त अशक्य है। इसके लिये बड़े दिलेर साधक की जरूरत पड़ती है। जैनियों के कुछ ग्रंथों में कहा गया है कि सुकुमाल आदि मुनीश्वर उल्लिखित पीठ से ही परमेष्ठी महामंत्र को सिद्ध कर मुक्त हुए थे। (२) शव-पीठ-किसी मृतक कलेवर पर आसन जमा मन्त्रानुष्ठान करना 'शव-पीठ' है। यह प्रायः वाममार्गियों का हो प्रधान पीठ है। कर्णपिशाचिनी, कर्णेश्वरी, उच्छिष्टचाण्डालिनी आदि कुदेवियों की सिद्धि इसी पीठासन से की जाती है। (३) अरण्य-पीठ-मनुष्य-संचार-रहित सिंह, व्याघ्र आदि हिस्र पशुबहुल निर्जन एवं भयानक अरण्य में निर्भय और एकाग्रचित्त होकर मंत्र साधना अरण्य पीठ है। निर्वाणमंत्र की सिद्धि के लिये अरण्य ही प्रशस्त बतलाया गया है। इसीलिये निम्रन्थ तपस्वियों ने आत्मसिद्धि के लिये एक निर्जन अरण्य को ही पसंद किया है। सुप्राचीन काल में मुनिमहर्षि नगर-ग्राम आदि में न रह कर सदा एकान्त वन में ही निवास कर आत्म-साधना किया करते थे। इसी का परिणाम है कि नहीं चाहने पर भी अहमहमिकया बहुत सी सिद्धियाँ उन्हें आ घेरती थीं। परिग्रह को एक सुदृढ़ एवं अविच्छेद्य बन्धन समझ कर ऐहिक सुख को लात मारने वाले, विषय-विरक्त वे तपम्वो अनायास प्राप्त उन सिद्धियों का लोकोपकारक सार्वजनीन कार्य में ही उपयोग करते थे न कि अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के कार्य में। बल्कि स्वयं भयानक से भयानक रोगादि से आक्रान्त होने पर भी उनसे मुक्त होने के लिये उन सिद्धियों का उपयोग कमी उन्होंने किया ही नहीं। वास्तव में त्यागमय जीवन के लिये एकान्तवास ही सर्वथा उपयुक्त भी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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