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भास्कर
"वीर जिनेसुर नमनु करिवि । सारद सिर न्याऊ । पन्द्रह तिथि जगि वरत- सारु तिस रासा गांऊ ॥ १ ॥ जंबूदीवहं भरत, चंपापुर जाणी । धाड़ी वहु त्रिपु अङ्गदेसि पदमावति राणी ॥ २ ॥ गुरु मुर्णिमा हिंदसेण चरण नमि रासा कीया । दास भगवती अगरवालि जिणपद मनु दीया ॥ २१ ॥ पढ़हिं गुणहिं सुणि मग धरहिं, तिन्ह पाउ पणासह रिउ सोउ लुहु कष्टु हरद्द धरि संप्पर वास ॥ २२ ॥” तीसरी रचना “दसलाक्षणी रासा" है और वह यह है :
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" तणरुह नाभिनरिंद नमौं, सारद पण मेसउ । दहलक्खा जगिधम्मसारु सिंह रासु भोसउ ॥ १ ॥ जंबूदीवह भरहषेति, मागध छै देखो। रायग्रही पुरियहु सुजाणु सेणिउजु नरेसो ॥ २ ॥ अष्टकरम हरिण मोषि गये, तजि चहुंगति दुक्खो । नंतचतुष्टय सोलहि अविनसुर सुक्खो । अवर कोइ नरुनारि इहो, व्रतु मणवच - काइरसी । राजरिद्धि सुहुसिध लहि भवसायरु तरसी ॥ ३३ ॥ गुरु मुणिमाहिदंसैंणु नामु मुणिचन्दु भणीजइ ।
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इसके बाद इसमें 'तत्वाथ -सूत्र' जी लिपिबद्ध किये हुए हैं । और फिर भगवतीदास जी . की रचनायें मिलती हैं । सबसे पहले 'आदितत सा' लिखा हुआ है । नमूने यों देखिये:"आदि जिनेसुर नमसकरी, सारद पण स्यों । विव्रत कथा विधारि घाइ, लहु रासु करेसउ ॥ १ ॥ वानारसि परपालु निवो मतिसागर साहो । धरि गुण हुन्दरि सातपूत छह किया विवाहो ॥ २ ॥ गुरु मुणिचन्द पसाइ किया यहु रासु विचारी । दास भगौती भइ सुमुहु भवियण मिण धारि ॥ १६ ॥ पढ़हिं गुणहिं सुणि सद्दहर, रवित्रत चितु लावंद | राजरिद्धि नर अमर - सुखु सिवरमणों पावहिं ॥ २० ॥” दूसरी रचना 'पखवाडे का रास' है और उसके नमूने ये हैं:
भाग है
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