Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Hiralal Professor and Others
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 47
________________ बिर) एक प्राचीन गुटका विपलिंदय पंचेदिय, समणा अमणाय पजपजन्ता । थावर-चायर-सुहुमा, मणवयकापण रक्खिव्वा ॥२॥ छतीसग्गाहाए, जो पठइ सुणइ भत्तिभारणं । सो णरु जाणइ वंधो, मोक्खो पुणुणाणमउ होदे ॥ ३७॥ जो जाणइ अरहन्तो, चस्स गुणत्थपजयत्वेहि । सो जाणदि अप्पाणं, मोहोखुभुजाइ तस्स लयं ॥ ३८ ॥" आगे भट्टारक सकलकीर्ति-विरचित 'सद्भापितावली" लिखकर 'टंडाणा रास' लिखा गया है, जिसके नमूने इस प्रकार हैं: "तूं स्याणा तूं स्थाणा जियड़े तूं माणा वे। दसणुणाणुचरणुअपणु गुण क्यों तजि हुवा अयाणा वे ॥१॥ मोहमिथ्यात पडिउ नित, पखसि चहुंगति-मांहि यंमाणा वे। नरकगतिहि दुषछेदणु, भेदणु ताडण ताप सहाणा वे ॥२॥ धर्मसुकल धरि ध्यानु अनूपम, लहि निजु केयल नाणा वे। जपति दास भगवती पावहु, सासउ सुहुनिव्वाणा वे ॥४॥ इन्हीं कवि भगवतीदास जी की और कई रचनायें इसी गुटके में आगे दी हुई हैं। यह कवि और मैया भगवती दासजी एक हैं, यह नहीं कहा जा सकता और जो प्रशस्ति इस गुटके के लिपि-संबन्ध में दी हुई है, उससे इनका समय वि० सं० १६८० और निवास स्थान सहजादिपुर नगर मालूम होता है। सनरहवीं शताब्दी की हिन्दी-पद्यरचना में इनकी कवितायें भी उल्लिखित की जा सकती हैं। इनके नमूने यथाक्रम आगे देखते चलिये । “वनजार" शीर्षक रचना भी इन्हा को रची हुई है। जिसके नमूने ये हैं: "चतुर वनजारे हो नमणु करहु निणराइ, सारद-पद सिर भ्याइ, ए मेरे नाइक हो ॥१॥ चतुर वनजारे हो कायानगर ममारि, चेतनु वनजारा रहह मेरे नाइक हो । सुमति-कुमति दो नारि, तिहि समनेहु अधिक गहइ मेरे नाइक हो ॥२॥ चतुर बनजारे हो तेरह म्रिगनैनी तिय दोई, इक गोरी इक सांबली मेरे नाइक हो। तेरी गोरड काज सुलोह, सांवल हह लडवावली मेरे नाइक हो ॥ ३ ॥ चतुर वनजारिन हो गुरु मुनि माहिदसैन दरसानि तिहं सुषु पाइए मेरी सुन्दरि हो । दूरि किया तिनि मैंनु तासु चरनि लिबलाइए मेरे नाइक हो। चतुर बनजारे हो सिहरुजादिनगार-ममारि । दास भगवती यौं कहा मेरे नाइक हो। जे गावहि नर-नारि सिवपुरि सासउसुष लहई मेरे नारक गे ॥ ३ ॥" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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